My Blog

Articles, Personal Diaries and More

लाख टके की बात

खबर दो-तीन हफ्ते पुरानी है। सनसनी और सुपरसोनिक के युग में इतनी पुरानी बात के लिए मीडिया में जगह कहां। लेकिन घटना महत्वपूर्ण और भविष्य में सदैव संदर्भित रहेगी इसीलिए उस पर चर्चा करना आवश्यक दिखाई दे रहा है। रतन टाटा ने अपने सपनों को साकार-सा करते हुए एक लाख रुपए की ÷नैनो’ को बाजार में अवतरित कर दिया। टाटा समूह का अपना प्रभुत्व व प्रभाव है। कई पैमानों में इस व्यावसायिक घराने ने पूर्व में अच्छे आदर्श स्थापित किए हैं और सामान्य जनता में इनकी विश्वसनियता है। इतने कारणों के साथ-साथ मात्र एक लाख की कार। सभी समाचारपत्र के मुखपृष्ठ पर यह खबर तो छपनी ही थी। मीडिया दिनभर नैनो’ को नये-नये कोण से दिखाता रहा। उसकी खूबसूरती की चर्चा नयी दुल्हन की तरह होती रही। उसके बारे में कई लेख लिख दिये गये। पढ़कर लगता कि मानो साधारण मनुष्य के लिए एक बहुत बड़ा तोहफा मिल गया हो और भविष्य में आज के बाद कोई मुश्किल नहीं रहने वाली। कार को इतना महत्वपूर्ण बना दिया गया कि लगा मानो आम जनता की सारी मुसीबतें इस लाख टके की गाड़ी पर बैठते ही समाप्त हो जाने वाली है। अप्रत्यक्ष रूप से लगता कि यह बताया जा रहा है कि लोगों का इसके बिना जीवन संभव नहीं और अब यह हर एक का सपना पूरा करने का काम करेगी।

इसमें कोई शक नहीं कि ऑटो मोबाइल क्षेत्र में नैनो एक क्रांतिकारी प्रस्तुति है और व्यावसायिक युग में व्यापार जगत की इन हलचलों से सूचना जगत उद्वेलित होता रहा है। वैसे तो व्यावसायिक घराने प्रभावशाली विज्ञापन के जरिये अपना हित साधते रहे हैं। इसलिए उपरोक्त घटना के विस्तृत कवरेज में कुछ भी नया नहीं है। आम जनता चाहे जितनी समझदार और पढ़ी-लिखी घोषित कर दी जाये, आकर्षक और लुभावने चित्रों और बातों में फंसते रहे हैं। और इस बार भी एक कार का सपना रखने वाले लाखों साधारण खरीदार कमर कस के जेबों को संभालने लगे होंगे। हो सकता है हजार-हजार के मात्र सौ नोटों को इकट्ठा करने की कोशिश में पूरा परिवार जुट चुका होगा। औरतों ने घर खर्च कम किया होगा और अपने इस ख्वाब को पूरा करने के लिए परिवार के खाने-पीने तक को कम किया गया हो। दूसरी ओर आदमी ने अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए एक-दो-तीन नंबर, सभी तरीके खोलकर, एक्सट्रा टाइम को ओवर टाइम में बदलने की कोशिश शुरू कर दी होगी। नैनो के ट्रेलर का प्रभाव इतना गहरा था तो पूरी पिक्चर कैसी बनेगी? बिकते समय क्या होगा वो तो तब की तब जाने लेकिन फिलहाल यही पता चला कि दिल्ली के प्रगति मैदान के आसपास सैकड़ों-हजारों वाहनों की लाइने लग गयीं और लोगों को घंटों जाम में फंसना पड़ा। पुलिस को अतिरिक्त मशक्कत करनी पड़ी वो अलग और अंत में कई बार नैनो को परदे में ढकना पड़ा। टाटा के लिए यह संपूर्ण खबर उत्साहवर्द्धक रही होंगी। और वे भविष्य की कल्पना कर करके बड़े प्रसन्न होंगे। और यह स्वाभाविक भी है। परंतु यह पहला मौका है जब सकारात्मक पक्ष के साथ-साथ कुछ ऐसे लेख भी छपे जो भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं से संबंधित थे। ट्रैफिक और प्रदूषण की बढ़ती समस्या को समझा गया और उस पर छिटपुट स्वर के साथ-साथ कई समाचारपत्रों में विस्तार से चर्चा हुई। इनमें से कुछ एक लेख तो अत्यंत व्यंग्यात्मक व मनोरंजक भी थे।

तकरीबन दो-तीन वर्ष पूर्व मैंने बढ़ते ट्रैफिक के ऊपर एक लेख लिखा था। उस वक्त मैंने छोटी से बड़ी कार खरीदी थी। मगर उत्साह कुछ दिनों में ही ठंडा हो गया था जब चंडीगढ़ के महत्वूर्ण सिटी सेंटर में मुझे गाड़ी पार्क करने की जगह न मिलने से वापस घर आना पड़ा था। आज उसी सिटी सेंटर की पार्किंग को बंद करने की योजना बनाई जा रही है। वैसे तो वहां हजारों गाड़ियों के पार्किंग की व्यवस्था है मगर यह भी अब अपर्याप्त है। भविष्य में लोगों को एक सुनिश्चित दूरी से बस में या पैदल उस मार्केट तक जाना पड़ेगा। अर्थात उस बाजार की असली ठाठ-बाट और रौनक शायद भविष्य में न दिखाई दे। बहरहाल, कुछ महीने पूर्व मैंने एक और लेख लिखा था ÷पार्क में पार्किंग’। आज स्थिति यह है कि तमाम चंडीगढ़ को खूबसूरती प्रदान करने वाले पार्कों में गाड़ियां भरी पड़ी रहती हैं। रोड पर इतना ट्रैफिक है कि कई बार चौराहों को पार करने में आधा-आधा घंटा लग जाता है। विगत दिवस मेरे एक मित्र एक व्यस्त चौराहे पर फंस गये। घर से परिवार सहित निकले थे फिल्म देखने। चूंकि टिकट पहले ही खरीद रखी थी और पिक्चर हॉल घर से मात्र दो से तीन किलोमीटर रहा होगा अर्थात तीन चौराहे। इसलिए पहले से जाने का मतलब नहीं था। सो ठीक दस मिनट पहले घर से निकले थे। मगर ट्रैफिक जाम में ऐसे बुरे फंसे की तीनों चौराहों को पार करते-करते ढाई घंटा लग गया। असल में घर से फिल्म के समय से थोड़े पहले निकलने की पुरानी आदत थी। यह सोचकर कि जल्दी जाकर क्या करेंगे, क्योंकि गाड़ी तो है ही। मगर जब इस बार फिल्म के अंत तक पहुंच पाये तो इतना झल्लाए कि बता नहीं सकते। अगले दिन कहने लगे इससे अच्छा तो हम पैदल चले जाते। टिकट बर्बाद हुई, बच्चे नाराज हुए और बीवी ने खाना नहीं खिलाया वो अलग। पूरे परिवार ने उस पर इस तरह दोष मढ़ा कि मानो पूरे शहर की गाड़ी उसी ने खरीदी हो।

एक अंग्रेजी समाचारपत्र में बड़ा व्यंग्यात्मक लेख छपा था। पढ़ते-पढ़ते हंसी आ ही गयी। भविष्य की, तकरीबन बीस-पच्चीस वर्ष आगे की कल्पना की गई थी। आम आदमी को कार में ऑफिस और घर के बीच आने-जाने में दिनों लगने लगे और कहीं-कहीं हफ्तों में बात की जाने लगी। इसीलिए घर पर ही ऑफिस होता मगर कभी-कभी तो बाहर जाना ही पड़ता। अंततः मीटिंग के लिए कई-कई दिनों बाद का समय सुनिश्चित किया जाने लगा। और लोग वापसी में चौराहे से फोन कर के पत्नी से कहते कि अभी उन्हें कुछ दिन और लगेंगे घर पहुंचने में। मुझे इस परिकल्पना में यह सोचकर और अधिक हंसी आई कि वाहन में बैठे लोग नैचुरल कॉल आने पर क्या करेंगे? गाड़ी छोड़कर सड़क किनारे जाना तो मुमकिन नहीं होगा, क्योंकि रेंग रही गाड़ियों में पीछे चल रहे वाहन आपत्ति करने लगेंगे और फिर सड़क के किनारे कहां जगह होगी। तो क्या फिर गाड़ी के अंदर ही मल-मूत्र त्यागने की व्यवस्था करने की ऑटो मोबाइल इंडस्ट्री वालों ने सोच रखा है। वैसे तो इसकी आवश्यकता ढाई-तीन घंटे जाम में फंसने वालों के साथ भी हो सकती है। और पता नहीं वे वर्तमान में बेचारे क्या करते होंगे? बहरहाल, वे इसकी आवश्यकता अवश्य महसूस कर रहे होंगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों को इस बारे में भी कुछ सोचना चाहिए और भविष्य में यह उनके विज्ञापन के लिए एक अतिरिक्त प्वाइंट हो सकता है।

यहां सवाल उठता है कि ट्रैफिक जाम की मुसीबत से बचने के लिए क्या कोई भी पक्ष सही दिशा में सोच रहा है? शायद कोई नहीं। छिटपुट लेख और विचारों से बात नहीं बनेगी। हां, यह किसी क्रांति के लिए बीज का काम कर सकते हैं। सोचिए, अगर लाख रुपए की लाख गाड़ियां भी शहर में आ गई, जो आयेगी भी, तो परिकल्पना कीजिए कि क्या होगा। अगर अगली दीवाली में आप घर से लक्ष्मी पूजन के सामान खरीदने के लिए निकलते हैं तो इस बात पर भरोसा कतई मत कीजिए कि शुभ समय तक वापस लौट पायेंगे। घंटों ट्रैफिक जाम में फंसने के लिए आपको तैयार रहना होगा। शादी का मुहूर्त न निकले, बारातियों को ध्यान रखना होगा। नेता जी के साथ चाहे जितने पायलट और ब्लैक कैट कमांडो हो, जाम से निकलने का कोई भी उपाय नहीं होगा, और आतंकवादियों को अपना काम अंजाम देना आसान होगा। मरणासन्न मरीज का एम्बुलेंस चाहे जितनी तीखी और तेज सायरन की आवाज से सड़क खाली करने के लिए कहे लेकिन चूंकि जगह नहीं होगी तो मरीज सड़क पर ही दम तोड़ देगा। वैसे भविष्य में यह कोई खबर नहीं बनेगी। हां, बच्चा पैदा करने वाली माताओं को ले जाने वाली एम्बुलेंस को गाड़ी में ही प्रसव कराने की व्यवस्था कर लेनी पड़ेगी। और बच्चे सड़कों पर पैदा होने लगेंगे। कोई माने या न माने अगले कुछ समय में सड़क दुर्घटना से मरने वालों की संख्या अन्य सभी बीमारियों से मरने वालों से कहीं ज्यादा होने वाली है। क्या हम उपरोक्त परिस्थिति की कल्पना करते हैं? नहीं। गाड़ी खरीदने वाले, बेचने वाले व्यापारी, सरकार, सबने आंखें मूंद रखी हैं। हां, जो ट्रैफिक जाम में फंस जायेंगे वो जरूर अपने आपको कोसेंगे। उच्च आदर्श और स्वच्छ नाम वाले टाटा से इस बात की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वे इस संदर्भ में भी थोड़ा ध्यान दें।