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रीति-रिवाजों में छिपी सामाजिक मानसिकता

दो दशक पूर्व महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर भुसावल के मध्यमवर्गीय मोहल्ले में दीपावली के दूसरे दिन सुबह-सुबह से ही प्रत्येक घर में पड़ोस के बच्चों का आना-जाना शुरू हो जाता था। और यह सिलसिला देर शाम और अक्सर दो-तीन दिनों तक चलता रहता। हर बच्चे के हाथ में एक थाली होती, जिसका आकार घर के आर्थिक हालात के हिसाब से बड़ा-छोटा होता। इस थाली में घर की बनी हुई तरह-तरह की मिठाइयां व नमकीन सजाकर रखी जाती, जिसे फिर ऊपर से किसी सुंदर कढ़ाईदार साफ कपड़े से ढका जाता। घर की साफ-सफाई और ढेरों मिठाई बनाने के साथ-साथ थाली के इस कपड़े के कवर पर कढ़ाई करने में भी दीवाली के पूर्व अच्छी-खासी मेहनत की जाती। परिवार की महिलाएं घर आने वाली हर थाली व उसकी मिठाई को गौर से देखतीं और दिमाग में याद रखते हुए एक बड़े थाल में उसे खाली किया जाता। थाली को लौटाते हुए अक्सर इस पर थोड़ी-सी शक्कर/चीनी रख दी जाती। कहा जाता कि खाली थाली लौटाना शुभ नहीं होता। बाद में इन मिठाइयों व पकवानों को परिवार के सदस्यों द्वारा खाया और फिर विश्लेषित किया जाता। इस तरह कुछ वर्षों में हर परिवार के पकवान कला को लेकर आम राय भी बन जाती और किसी-किसी परिवार से आने वाली थाली का इंतजार रहता। इस तरह से मोहल्ले के हर घर की मिठाई खाने का हर परिवार के सदस्यों को मौका मिल जाता। और कई दिनों तक आपस में मिलने-जुलने पर विशेषकर औरतों के बीच में यह चर्चा आम रहती। यह रिवाज महाराष्ट्र की गलियों तक ही सीमित नहीं था। उत्तर में हजारों किलोमीटर दूर हिमालय की ठंडी वादियों में पले बसे हिमाचल प्रदेश में भी यही संस्कृति पिछले दशक तक तो दिखाई देती थी। यहां भी इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता कि घर आने वाले बच्चे के हाथों से ही अपने घर की मिठाइयां लौटाई नहीं जाए। हर घर से आमतौर पर छोटे बच्चे इस काम में लगाये जाते और वे दूसरों के घरों में नये कपड़े पहनकर जाया करते। और किसी घर में अगर कोई छोटा बच्चा नहीं हुआ तो भी कोई मुश्किल नहीं, आस-पड़ोस के बच्चे को बुला लिया जाता। हां, वो देते समय दी जाने वाली थाली का ब्योरा जरूर देता कि ये अमुक-अमुक बुआ-चाची-मौसी आदि-आदि के द्वारा भेजी गई है। सभी थाली में एक समानता होती, हर एक में खील-बताशे जरूर हुआ करते, यह दीपावली में लक्ष्मी पूजन के प्रसाद के रूप में दिया जाता। इसके पीछे धार्मिक भावना और गहरी आस्था जरूरी होती मगर कट्टरता नहीं, तभी गैर-हिन्दुओं के घर भी मिठाई भेजी जाती। अमृतसर से लेकर आगरा, झांसी, इलाहाबाद से होते हुए कलकत्ता से वापस रायपुर, जबलपुर, हैदराबाद सभी शहरों में यह आम दृश्य होता। यह हिन्दुस्तान के मोहल्लों में सदियों से साथ-साथ प्रेमपूर्वक जीने के लिए आपस में संबंधों को जोड़े रखने की मिठासभरी अदृश्य डोर थी। जो बिना किसी कारण से हर साल मजबूत होती चली जाती। इन रिवाजों के पीछे समाज को एक परिवार की तरह बनाए रखने की मानसिकता छिपी थी जो अपने उद्देश्य में सफल थी। इस परंपरा में भी महंगाई व गरीबी से तंग लोग अपनी हैसियत से मिठाई में खोये की मात्रा कम-ज्यादा डालते मगर मिठास में कमी नहीं आती। घर में बने होने के कारण मिलावट का न तो भय था न ही मीडिया का आतंक जिससे डरकर लोग मिठाई खाना-देना छोड़कर चॉकलेट-बिस्किट से काम चलाएं और देसी पकवानों को खाने से वंचित रह जाएं। धीरे-धीरे आधुनिक युग में मोहल्लों ने कॉलोनियों का रूप धारण कर लिया और यह रिवाज शनैः शनैः लगभग समाप्त हो गए। मोहल्ले नाम के रह गए और संस्कृति ने अपना परिधान बदल लिया जो मोहल्ले अब भी मूल रूप में रह गए उनमें भी कॉलोनी की संस्कृति का बढ़ता प्रभाव देखा जा सकता है।

उपरोक्त परंपरा को विस्तार मिला जब शहर विकसित होने लगे। इसी भावना को आगे बढ़ाएं तो मिठाई के आदान-प्रदान का सिलसिला और भी रूपों में देखा जा सकता है। यह मोहल्लों से निकलकर पूरे शहर में भी फैल गए। बस दूरियों के कारण थाली की जगह डिब्बों ने ले ली। अमूमन दीवाली के दूसरे दिन लोग घरों से निकलकर शहर के कोने-कोने में बसे रिश्तेदारों, दोस्तों और अपने उच्च अधिकारियों से मिलने जाने लगे। साथ मिठाई के डिब्बे होते जिसमें आधुनिकता का पुट डालने के लिए दुकानों की मिठाई दी जाने लगी और ज्यादा खुश करने के लिए ड्राई फ्रूट के डिब्बे दिये जाने लगे। यह व्यावसायिकता की शुरुआत और बाजार की पहली सीढ़ी थी। पिछले कुछ दशकों से यह प्रथा लगभग पूरे देश में पनप रही है। यह सिलसिला दूसरे दिन से प्रारंभ होकर तीसरे चौथे दिन तक चलता रहता। सज-धजकर, नये-नये कपड़े पहनकर, कहीं-कहीं सिर्फ पति-पत्नी तो कहीं बच्चे भी साथ में दोपहर से ही घर से निकल जाते। मिठाइयों को लेकर जिस घर में भी जाते वहां विशिष्ट पकवान खाने को मिलता। मिठास बरकरार थी साथ ही बातचीत, मिलना-जुलना हो जाता। औरतें अमूमन, क्या खरीदा? कैसे मनाई दीवाली? पूछ-पूछकर विस्तार से गप्पें मारतीं और एक-दूसरे के साथ भावनात्मक रूप से रिश्ते जुड़े रहते। यह संस्कृति शहरों की देन थी और बहुत हद तक तर्कसंगत लगती। बाजार की मिठाइयों में भी कम से कम प्रसाद की भावना मिली होती। आमतौर पर लोग दीवाली के पूर्व खरीदारी करते और पूजन के बाद में मिलने-जुलने के लिए घरों से निकल जाते। भैयादूज पर इसी बहाने भाई के परिवार से मुलाकात हो जाती।

मगर विगत कुछ वर्षों में, विशेषकर दिल्ली से आगे उत्तर भारत में अब इस परंपरा में फर्क आया है। अब यहां, दीवाली के दो दिन पूर्व से ही लोगों का आना-जाना शुरू हो जाता है। और मिठाइयों का स्थान सिर्फ ड्राई फ्रूट ही नहीं महंगे-महंगे गिफ्टों में परिवर्तित होने लगा। पूजन के पूर्व दी गई किसी भी चीज में प्रसाद की भावना कैसे हो सकती है? यकीनन यह नयी मानसिकता की देन लगती है। पुरानी पीढ़ी को यह आज भी थोड़ा अटपटा लग सकता है। वैसे तो हिन्दुस्तान जैसे बहुरंगी देश में जहां हर दस कोस के बाद अगर बोली बदल जाती है, रहन-सहन पहनावा बदल सकता है तो रीति-रिवाज क्यूं नहीं बदल सकते? इसमें कोई अचरज नहीं होना चाहिए। वैसे भी यह समय के साथ परिवर्तनशील है और फिर किसी भी सभ्यता के विकास में स्थानीय जनजीवन के साथ तत्कालीन व्यवस्था का भी बहुत बड़ा हाथ होता है। मगर इन आधुनिक रीति-रिवाजों के पीछे त्योहार के सामाजिक व धार्मिक उद्देश्य दिखाई नहीं देते। पूर्व में हमारे पारंपरिक रीति-रिवाज सामाजिक समरसता और रिश्तों में मिठास व मजबूती के उद्देश्य से होते थे। लोग होली या दीवाली, अपने पैतृक स्थान पर जरूर जुटते। यहां तक कि भाई-बहनों के संबंध, आधुनिकता आने के बाद भी, राखी के धागे को कोरियर और पोस्ट के द्वारा भेजकर भी बने रहे। आधुनिक औरतों के द्वारा कीमती वस्त्र पहनकर ही सही अपने पतियों के लिए करवाचौथ का उपवास तो रखा ही जाता। इसी तरह से श्राद्ध में अपने पूर्वजों के नाम खिलाते हुए हम उनको आज भी जिंदा रखते आए हैं। इन सबके पीछे संबंधों को बनाए रखने की मानसिकता थी और है। मगर दीवाली के पूर्व ही बड़े-बड़े आकर्षक उपहार देने की परम्परा का जोर-शोर से चल पड़ना हमारी नयी मानसिकता को दिखाता है। जो चारों ओर तेजी से फैल रही है। सभ्यता/संस्कृति में समय के साथ बदलाव होना कोई विशेष बात नहीं लेकिन मिठाई की जगह पर इस कबाड़ को लेने-देने से रीति-रिवाजों की नयी सोच को समझना जरूरी हो जाता है। आज इनमें रिश्तों की सुगंध नहीं बल्कि व्यावसायिकता की बू नजर आती है। पूंजीवाद के बाजार ने इसे एक संक्रामक रोग की तरह अब चारों ओर धीरे-धीरे फैलाना शुरू कर दिया है। इसे हम आधुनिक जीवनशैली से जोड़कर देखें तो जहां-जहां व्यावसायिकता विकसित हो रही हैं वहां-वहां डिब्बों के अंदर मिठाई की जगह उपभोग के सामान ने लेना शुरू कर दिया है। बहरहाल, यही हाल अब हर जगह होने लगा है। इन उपहारों में देने वाले और लेने वाले की हैसियत से तोहफे की कीमत सुनिश्चित की जाती है। और यह हजारों से लेकर लाखों में हो सकती है। ऊपर से ये नौकरों, ड्राइवरों, निजी सहायकों के हाथों बांटे जाते हैं। संक्षिप्त में कहें तो इसके पीछे प्रेम नहीं व्यावसायिकता की मानसिकता है।

पूर्व में लक्ष्मी पूजन के माध्यम से हमारी संस्कृति की पहचान थी अब सिर्फ लक्ष्मी रह गई पूजन नदारद है। रिश्तों की मिठास रीति-रिवाजों के माध्यम से परंपरा बनकर सदियों से चली आ रही थीं। हर इंसान के लिए चाचा-चाची और मामा-मामी का उद्बोधन होता था और समाज की मजबूत नींव इस छोटी-सी बात पर टिकी थी। कॉलोनी में विकसित अंकल-आंटी की परंपरा ने लक्ष्मी पूजन के त्योहार को अब सिर्फ और सिर्फ लेन-देन के लिए केंद्रित कर दिया है। पता नहीं लक्ष्मी जी इसे देखकर क्या सोचती होंगी? और पता नहीं विष्णु जी से क्या कहती होंगी? यह एक कल्पना का विषय हो सकता है मगर यकीनन इतना जरूर कहती होंगी कि अब वे आपसी संबंधों की डोर बनाए रखने की जगह खुद एक लक्ष्य बन चुकी हैं। बात यहां तक बिगड़ चुकी है कि अब मनुष्य धन को सिर्फ पाना चाहता है लक्ष्मी जी की पूजा तक का इंतजार नहीं कर पाता। यकीनन विष्णु जी भी देखकर दुःखी होते होंगे। बहरहाल, मेरे लिये इस सवाल का जवाब नजर नहीं आता कि इन डिब्बों के अंदर के कबाड़ का एक आदमी क्या करता होगा? मिठाइयां तो घर में जितनी मर्जी आ जाए, कुछ दिनों में मिल-बांटकर खा कर खत्म की जा सकती है, स्वाद लिया जा सकता है लेकिन जब किसी एक ही घर में दसियों उपभोग के सामान, गिफ्ट रूप में आ जाएं तो वो आदमी पता नहीं क्या करता होगा? बड़े से बड़ा पेट वाला आदमी इन तोहफों को न तो खा सकता है और न ही दुकान लगाकर बेच सकता है। एक थाली में खाने वाले मनुष्य को जब दसियों डिनर सेट मिल जाते होंगे, वो भी हर वर्ष, तो वह क्या करता होगा? यह मेरे लिए कभी-कभी कौतूहलता का विषय बन जाता है।