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पुस्तक मेले में जाने के बहाने

मेला हमारी संस्कृति व सभ्यता में पला-बढ़ा शब्द है। सुनते-पढ़ते ही विशेष चित्र आंखों के सामने उतर आता है। आज की युवा पीढ़ी शायद इससे कुछ अनजान हो मगर पुरानी उपन्यासों व फिल्मों के माध्यम से इसका फिल्मी ही सही कुछ-कुछ सजीव चित्रण हो जाता है। यहां औरतों के लिए श्रृंगार सामग्री चूड़ी-बिंदिया, पाउडर-लिपिस्टिक तो बच्चों के लिए झूले, पतंग और खाने की ढेर सारी सामग्री उपलब्ध होती। बाइस्कोप भी। युवाओं के लिए व्यापार से लेकर मौज-मस्ती का पूरा इंतजाम। नौटंकी-नाच-गाना भी। एक तरफ नौचन्दी मेला, दीवाली मेला, पशु मेला, कृषि मेला आदि शुद्ध व्यावसायिक हैं तो कुंभ मेला, संक्रांति मेला और सावन का मेला हमारी धार्मिक संस्कृति से जुड़े हैं। बहरहाल, हमारा पारंपरिक मेला आज के बाजार से कई मामले में अलग, प्रकृति के नजदीक, व्यावसायिक कम व्यक्तिगत अधिक, मस्ती उमंग उल्लास में डूबे नागरिक का सामाजिक उत्सव है। मुक्त अर्थ व्यवस्था के छा जाने के बाद भी यह अपने ढंग से गांव-कस्बों और यहां तक कि शहरों में आज भी अलग-अलग रूप में जिंदा है। यह दीगर बात है कि आधुनिक बाजार ने इसे अपने अंदर समेट लिया और नये नाम दिये पुस्तक मेला, क्राफ्ट मेला आदि-आदि।

विगत सप्ताह किसी कार्य से दिल्ली में था। बीच में समय मिलने पर अपने एक मित्र के साथ दिल्ली पुस्तक मेला जाने का कार्यक्रम बना। मेरे दोस्त के लिए यह पहला अनुभव था इसलिए उसकी उत्सुकता समझ में आती थी। मगर एक लेखक होने के नाते मेरी निष्क्रियता देख वो अचंभित था। मैं बहुत अधिक तो नहीं मगर पूर्व में एक-दो बार इस तरह के मेलों में जा चुका हूं। अन्य लेखकों का तो पता नहीं। मेरे हर बार न जाने के पीछे कोई खास वजह नहीं, सिवाय इसके कि एक तो मैं एकांतप्रिय हूं और दूसरा पुस्तक खरीदने के लिए किताब की दुकानों में नियमित रूप से आना-जाना लगा रहता है। हां, पुस्तकालयों में पढ़ने जाना भी अच्छा लगा करता था। लेकिन अब लाइब्रेरी की बुरी हालत, गंदे मेज-कुर्सियां, धूल से भरी किताबों के कारण वहां बैठकर पढ़ने का अब मन नहीं करता। इससे अच्छा तो घर में किताब लाकर पढ़ने में आनंद आता है। इसका मतलब यह कदापि नहीं कि मैं उत्सव-मेले-हाट की मस्ती से दूर भागता हूं। बल्कि यह मेरे जीवन में प्रमुख स्थान रखते हैं। बचपन में दादी-नानी के गांव-कस्बे में लगने वाले मेले-हाट की यादें आज भी मदमस्त कर देती हैं। लेकिन पुस्तक व लेखन को मेले व बाजार शब्द से जोड़ने पर मुझे थोड़ा अटपटा लगता है।

उपरोक्त वर्णन व्यंग्य नहीं एक शब्द की व्यथा है। अंग्रेजी की खूबसूरती कहें या बहुरंगी जो एक ही शब्द से कई अर्थ निकाले जाते हैं। लचीलापन ही कह लीजिए। शायद हिन्दी पर इसका असर पड़ने लगा है। अब पता नहीं बुक फेयर का सबसे नजदीक अर्थ वाला शब्द क्या होना चाहिए मगर आम बोलचाल में पुस्तक मेला चलन में है। हां, इसमें पुस्तक की खरीद-फरोख्त के अतिरिक्त पुस्तक लोकार्पण, विभिन्न विषयों पर चर्चा, सेमिनार, प्रबुद्ध लेखकों से मिलना-जुलना देख इसे बौद्धिक उत्सव कह सकते हैं। बहरहाल, मेला व बाजार की परिभाषा को चरितार्थ करते तकरीबन सभी प्रकाशक अपनी-अपनी दुकान अपनी-अपनी हैसियत से सजाकर बैठे होते हैं। प्रादेशिक भाषाओं के साथ-साथ विदेशी प्रकाशक भी साथ-साथ मिल जाते हैं। दिल्ली पुस्तक मेले में, जैसा कि होना था, जिन्ना और जसवंत सिंह अपने प्रकाशकों के पास बेहतरीन पोस्टर व पुस्तक के माध्यम से उपस्थित थे। पता नहीं स्वतंत्रता पूर्व ब्रिटिश काल में और विभाजन के बाद पाकिस्तान में जिन्ना इतने चर्चित हुए या नहीं। मगर आज वो इन चित्रों में खूब जंच रहे थे। यही नहीं और भी लोकप्रिय नाम अपने-अपने स्टैंड पर अलग से लटकाए गए थे। शायद यह आधुनिक बाजार का कमाल है जो इसे पारंपरिक मेले से थोड़ा अलग करता है। इसका बड़ा सरल और सीधा गणित है। यहां लोकप्रियता बिकती है। नाम चलता है। वैसे भी आम पाठक को कैसे पता चले कि किस पुस्तक के अंदर क्या है, वो तो उसे जो बताया जाएगा उतना ही वो जानेगा। और इसी मंशा से, एक योजना के साथ, बेचने के लिए कुछ एक विशिष्ट सौभाग्यशाली को चर्चित कर दिया जाता है। अब हिन्दी प्रकाशक द्वारा बाजार के इस नियम को जानकर व्यवसाय में क्रियान्वित करने में त्रुटि है या फिर लोकप्रिय लेखक हिन्दी में पैदा नहीं हो पा रहे? पता नहीं। कारण चाहे जो भी हो, हिन्दी पुस्तक के बाजार को आज भी पुराने खिलाड़ियों (लेखकों) के द्वारा ही चलाया जा रहा है। इतनी लंबी पारी तो शायद दूसरे क्षेत्र में किसी ने न खेली होगी। यहां तो कंपनी का माल दिनों के हिसाब से बदल जाता है तो ब्रांड अम्बेसडर साल दो साल में बदल जाते हैं। जब तक उम्र है ठीक अन्यथा दूसरी कम उम्र मॉडल के आते ही पचीस साल की नायिकाओं को भी बूढ़ा घोषित करके बाहर कर दिया जाता है। राजनीति की दुकान में भी इतनी लंबी पारी कोई नहीं खेलता। नयी पीढ़ी के आते ही पुरानी पीढ़ी को इतिहास में दफना दिया जाता है। थोड़ा-बहुत अगर चर्चा हो भी गई तो वो भी सिर्फ अपने फायदे के लिए। मगर हिन्दी साहित्य में स्थिति इन सबसे भिन्न है। आज भी वही प्रेमचंद से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी, निराला, प्रसाद, महादेवी, पंत (आदि) और बहुत हुआ तो अज्ञेय व बच्चन की मधुशाला छलक उठती है। थोड़ा-बहुत स्पेस, कोई नया लेखक सनसनी से बटोर भी ले, मगर बिकने के मामले में इनके अनुपात का हाल बुरा है। ओल्ड क्लासिक्स को छोड़ दें तो भी फिर इस बात का जवाब नहीं होगा कि टैगोर, मुल्कराज व नारायण के साथ-साथ अरविंद अडिगा, विक्रम सेठ, झुंपा लहरी अच्छे अनुपात में अंग्रेजी में क्यूं बिकती हैं। हिन्दी के नये नाम में भी जो थोड़ा-बहुत चलते हैं (किसी एक-दो का नाम लेना ठीक न होगा), अधिकांश साठ से सतर पार कर चुके हैं। युवा पीढ़ी तो बाजार की दुकानों में पूरी तरह नदारद है। मैं यहां बात कर रहा हूं आम जनता और पाठक की जो पुस्तक खरीदने पहुंचती है। साहित्यिक लेखकों की झुंडलियां द्वारा आपस में एक-दूसरे को लोकप्रिय घोषित करवाने में चाहे जितनी राजनीति खेली जाए, बाहर उनका नाम लेने वाले कम हैं। बाजार के इस खेल में हिन्दी प्रकाशक से कहां चूक हो रही है पता नहीं, लेकिन इस ओर ध्यान भी नहीं जा रहा।

बहरहाल, दिल्ली पुस्तक मेले में भीड़ ठीक-ठाक थी। स्टाल भी आकर्षक ढंग से सजाये गए थे। बिक्री भी हो रही थी। लोग देख समझ रहे थे। किताबों को ढूंढ़ा जा रहा था। उत्सुकता बनी हुई थी। एक जीवंत माहौल था और मेरे मित्र ने घूम-घूम कर कुछ किताबें खरीदी थीं। और कुछ एक में मुझसे राय भी ली थी। मगर बात फिर वहीं कि हिन्दी में पुरानी किताबों को ही आज भी खरीदा जा रहा था जबकि नये के खरीदार कम थे।

अगले दिन समाचारपत्रों में छपे कुछ एक लेख पर ध्यान गया जिसके कारण इस स्तम्भ में इस विषय पर लिखने के लिए मजबूर हुआ। लिखा गया था कि पुस्तक मेले में रौनक न के बराबर थी और प्रकाशक ऊंघते नजर आ रहे थे। किताबें अपने पाठकों के लिए तरस रही थीं। और भी कई उपमा लगाये गए थे। और फिर लेखन, पठन और पुस्तक की दुर्दशा पर भारी-भारी आंसू और समाज पर दोषारोपण। वही घिसी-पिटी बातें। इसमें कोई शक नहीं कि नये वैज्ञानिक खोज से पारंपरिक व्यवस्था पर असर पड़ा है। मगर यह हर क्षेत्र में है। इसीलिए इंटरनेट ने पुस्तक पर असर डाला है। लेकिन यह उतना नहीं जितना ईमेल व एसएमएस ने पत्रों को समाप्त कर दिया। पढ़ने वालों के हालात उतने भी बुरे नहीं अन्यथा हिन्दी समाचारपत्र लाखों में नहीं बिकते। असल में हिन्दी प्रकाशन ने बाजार के दांव-पेंच नहीं सीखे। वर्ना अंग्रेजी की किताबें आज भी लाखों बिकती हैं। असल में हम बात तो करते हैं सिद्धांत की और परिणाम चाहते हैं व्यवसाय का। हम पूरी तरह से भ्रमित हैं। हम क्या उम्मीद करते हैं कि पुस्तक मेले में भीड़ उमड़ पड़ेगी? किताब खरीदने के लिए किसी कपड़े की सेल की तरह मारामारी होगी? जैसे कि पारंपरिक सिनेमा हॉल में अमिताभ बच्चन का शो देखने के लिए ब्लैक में टिकट बिकती थी या फिर आज के जमाने की एक रात की आइटम गर्ल को देखने के लिए चौराहे पर भीड़ उमड़ पड़ती है। हम क्या सोच रहे थे कि दीवाली-दशहरे के दौरान मिठाई की दुकानों में होने वाली धक्का-मुक्की की तरह यहां भी खींचातानी होगी? या स्त्री श्रृंगार की दुकान में लगी सेल में छीना-झपटी वाला दृश्य यहां होगा? जहां तक रही बात आज के युग पर दोषारोपण करने की, तो ऐसा कौन-सा काल भारतीय उपमहाद्वीप में आया था जब पुस्तक खरीदने के लिए नौटंकी देखने वालों की तरह भीड़ लग जाया करती थी? या लेखक को देखने के लिए लोग पागल हुआ करते थे? ऐसा कौन-सा लेखक पैदा हुआ जो अपने जीवनकाल में अति लोकप्रिय रहा हो? इन सवालों के जवाब देने से पूर्व यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि क्या हम वास्तव में लोकप्रियता चाहते हैं? उलटे लोकप्रियता के नाम पर तो हिन्दी में हमारी सोच ही भिन्न है। हम तो लोकप्रिय लेखन को अपने साहित्य से ही हटा देते हैं। गुलशन नंदा ने बहुत लोकप्रिय उपन्यास लिखे, उनकी फिल्में सिलवर जुबली हिट हुईं, उनको पढ़ने के लिए युवा वर्ग लालायित रहता था, मगर हमने तो उन्हें हिन्दी इतिहास से ही मिटा दिया।

हमारा व्यवहार व दृष्टिकोण इस क्षेत्र में सदा से दोगला रहा है। हम बाजार में खड़े होकर बिकना भी चाहते हैं और तथाकथित साहित्यकार भी बने रहना चाहते हैं। बिकने के नियम भिन्न हैं तो सिद्धांत की बात बाजार में नहीं चलती। साहित्यिक पुस्तक व गंभीर लेखन सदा से समाज का सीमित वर्ग पढ़ता आया है। अंग्रेजी में भी लोकप्रिय लेखन का बाजार ही विशाल है। पश्चिम की तुलना में हम पढ़ने-लिखने के मामले में सदा से पीछे रहे हैं। अंग्रेजी किताबों का यहां थोड़ा-बहुत बिकना पश्चिमी नकल के अतिरिक्त और कुछ नहीं। प्रमुख बात है कि हिन्दी में अंग्रेजी की तरह लोकप्रिय लेखन को बढ़ावा नहीं मिलता। अंग्रेजी में क्लासिक्स और बेस्ट सेलर साथ चलते हैं। चेतन भगत और हेरी पॉटर को भी स्थान मिलता है मगर हमारे यहां यह संभव नहीं। पूर्व की भांति जब संस्कृत व उसमें लिखे ज्ञान को आमजन से दूर रखा जाता था, आज भी हम साहित्य को आम पाठक तक ले जाने से हिचकिचाते हैं। तो फिर संस्कृत की तरह अलोकप्रिय रहने पर आपत्ति कैसी? और पुस्तक द्वारा कम व्यवसाय करने पर रोना कैसा? और इसीलिए हमें इस स्थान का नाम पुस्तक मेला न रखकर कुछ और रखना चाहिए। अब यह क्या होगा? साहित्य में सोच का विषय हो सकता है। सोचिए, इसके पहले कि हम अगले वर्ष विश्व पुस्तक मेले का आयोजन करें। या फिर हम बाजार के नियमों को स्वीकार करें और मेले शब्द को यहां सार्थक करें।