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भय इंसान को भ्रष्ट बनाता है

म्यांमार (बर्मा) की लोकप्रिय नेता आंग सांग सू की की ‘भय से मुक्ति’ के नाम से विश्वप्रसिद्ध भाषण का प्रारंभ कुछ इस तरह से होता है- ‘इंसान को शक्ति नहीं बल्कि भय भ्रष्ट बनाता है। सत्ता के हाथ से निकल जाने का भय उन्हें भ्रष्ट करता है जो इसे नियंत्रित करते हैं और सत्ता से होने वाले अनिष्ट के भय से शासित जनता भ्रष्ट बन जाती है।’ इस कथन को हमें समझने में कठिनाई हो सकती है। चूंकि यह हमसे सीधे संबंधित व संदर्भित नहीं है। हां, उन स्थानों में इसे बेहतर समझा जा सकता है जहां भय का साम्राज्य है। असल में अनुभव व हालात से विचार उत्पन्न होते हैं और विचार से वक्तव्य। हमें भय से भ्रष्ट होना अटपटा लगेगा। क्योंकि हमारी भ्रष्टता बाजार की चकाचौंध से प्रेरित होती है और स्वार्थ जनित है।

आंग सांग सू की पढ़ी-लिखी महिला हैं। विश्व के कई भागों में उन्होंने कार्य किया। विश्व की बेहतरीन शैक्षणिक संस्थाओं से शिक्षा ग्रहण की। जीवन का उन्हें विशिष्ट अनुभव है। वह बर्मा के एक महत्वपूर्ण परिवार से हैं। वह नोबेल शांति पुरस्कार 1991 एवं जवाहरलाल नेहरू अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 1992 प्राप्त कर चुकी हैं। मगर फिर भी कोई और कारण होगा जो उपरोक्त कथन विश्वप्रसिद्ध हुआ। इसमें कहीं न कहीं गहन अध्ययन, विश्लेषण, ध्यान-चिंतन और सत्यता होगी। असल में यह एक राष्ट्र की परिस्थितियों का वर्णन कर जाता है। वैसे भी ऐतिहासिक महत्वपूर्ण कथन के द्वारा संदर्भित समाज की तत्कालीन अवस्था व व्यवस्था को समझा जा सकता है। यही कारण है जो सू की का उपरोक्त कथन बर्मा की आंतरिक, सामाजिक व राजनैतिक हालात को जाने-अनजाने ही बयां कर गया। संक्षिप्त में कहें तो यह वहां की शासन व्यवस्था की मानसिकता व शासित जनता की पीड़ा को प्रदर्शित करता है। तो क्या वहां जो सत्ता में हैं, सत्ता के हाथ से निकल जाने के डर से और अधिक भ्रष्ट होते जा रहे हैं? और अधिक आतंक फैला रहे हैं? क्या जनता भी इस आतंक और शासक के प्रकोप से डर कर स्वयं भी भ्रष्ट हो रही है? या फिर शांत रह कर अप्रत्यक्ष रूप से तानाशाही की मदद कर रही है? तो क्या यही कारण है जो एक खूबसूरत व शांतिप्रिय राष्ट्र सैनिक शासन से फिर भी मुक्त नहीं हो पा रहा?

कुछ दिन पूर्व आंग सांग सू की को बर्मा की अदालत ने अठारह महीने के लिए नजरबंद की सजा सुनाई। विश्व के तमाम प्रमुख अखबारों में इसकी चर्चा हुई। विरोध दर्ज हुआ। लेख लिखे गए। छिट-फुट प्रदर्शन भी हुआ। राजनैतिक हलचल भी हुई। यह सत्य है कि विश्व के तमाम बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। लेकिन यह विरोध तो पिछले दो दशकों से चला आ रहा है। मगर संबंधित शासकों पर इसका कोई असर नहीं। इसके राजनीतिक पहलुओं पर पक्ष-विपक्ष की दृष्टि से चर्चा करने का इस लेख का उद्देश्य नहीं। मात्र विशुद्ध मानवीय दृष्टिकोण से ही देखना यहां काफी होगा। सैद्धांतिक रूप से वो राष्ट्र व समाज, जिसकी नीति में मानवता नहीं, सभ्य व विकसित कहलाने के योग्य नहीं। मगर आज के वैज्ञानिक युग में एक राष्ट्र की अस्त-व्यस्तता के लिए वो अकेला दोषी नहीं, संपूर्ण संसार अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता। यहां प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में हमारी मानवीय सभ्यता आधुनिकता का चोला पहनकर सभ्य व सामाजिक मनुष्य बनने का जयघोष कर सकती है? शायद नहीं। विश्वभर में इसके कई कारण हैं। इस बार सू की के ऊपर लगाये गए इल्जाम को ही देखें तो यह किसी बालकथा से प्रेरित लगता है। यहां तक कि समझदार बच्चे भी इस तरह की कहानियों को हल्के में ले सकते हैं। सुनकर अटपटा लगता है। सवाल उठता है कि एक निहत्थी औरत, जो वर्षों से नजरबंद है, जिसके चारों तरफ पहरा हो, के घर में कोई इंसान अगर घुसता है तो इसके लिए कौन जिम्मेवार है? शासन या वो स्वयं? और फिर जब उसके घर में वह इंसान दो दिन तक रहता है तब उसे उसी वक्त क्यों नहीं पकड़ा गया? बहरहाल, जिन आरोपों पर नासमझ भी नहीं यकीन कर सकता उस पर सजा भी सुना दी गई। और मजे की बात तो यह है कि मुख्य आरोपी के छूट जाने की खबर आ रही है मगर जिसने कुछ नहीं किया वो आज भी सजा भुगतने के लिए मजबूर है। ऊपर से इस तरह की अमानवीय हरकतों पर भी विश्व के कुछ देश अपना स्वार्थ सिद्ध करने में लगे हैं तो कुछ छुपकर इस अत्याचार का समर्थन कर रहे हैं। ऐसे आधुनिक विश्व को क्या नाम दिया जाए?

इसमें कोई शक नहीं कि आदिकाल से सत्ता की राजनीति घिनौनी ही नहीं पूरी तरह से भ्रष्ट व अमानवीय रही है। इतिहास के किसी भी काल को देख लें सत्ता के गलियारे खून और षड्यंत्र से भरे पड़े हैं। किसने कब किसको धोखा दिया, कब किसने किसको कैसे मार दिया, समझना और समझाना मुमकिन नहीं। समय और राष्ट्र भिन्न-भिन्न हो सकते हैं लेकिन कहानियां सबकी एक जैसी ही हैं। तंत्र कोई भी हो, वाद कोई भी, फिर चाहे राजतंत्र हो या सैनिक तानाशाह, हिटलर हो या स्टॉलिन, शासक के हाथ खून से सदा सने रहे। रोमन साम्राज्य से लेकर आधुनिक महाशक्ति तक यहां घात-प्रतिघात व खून की होली खेलती रही हैं। यहां कोई किसी का सगा नहीं। इतिहास गवाह है कि कई राष्ट्र ने गुलामी की जंजीरों से मुक्त करने वाले अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को ही गुलाम बना दिया। बर्मा की कहानी भी कुछ अलग नहीं। म्यांमार की आधुनिक सेना के संस्थापक सू की के पिता आंग सांग ने अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए उतनी मुश्किलों का सामना नहीं किया होगा जितना उनकी बेटी अपनों से ही मुक्त होने के लिए कर रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ समय बाद ही उनके पिता की हत्या कर दी गई, कुछ दिनों के पश्चात बड़ा भाई मरा पाया गया अर्थात फिर वही कहानी। इसके पश्चात परिवार की एक सामान्य-सी लड़की कई विश्वप्रसिद्ध शैक्षणिक संस्थाओं में पढ़कर जीवन में नौकरी, परिवार, सुख-समृद्धि पाती है और एक समय अपनी बीमार मां की सेवा के लिए स्वदेश वापस पहुंचती है। लेकिन नियति उससे कुछ और कराने के लिए तैयार है। देश में हाहाकार मचा हुआ था। लोगों ने उससे उम्मीद की और उसने नेतृत्व प्रदान करना स्वीकार किया। राजनैतिक पार्टी नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी बनाई गई। जनता ने उसे बहुमत दिया। नियम से उन्हें प्रधानमंत्री बनना चाहिए था मगर तभी उन पर विभिन्न इल्जाम लगा कर नजरबंद कर दिया जाता है। आरोप लगाया जाता रहा है कि वे देशद्रोही हैं, विश्वासघाती हैं, उन्हें देश से निकाल देना चाहिए, वह दूसरे देश के हित में काम करती हैं और विदेशी निवेशकों को देश में घुसने की आजादी देकर राष्ट्र को नष्ट करना चाहती हैं। आदि-आदि।

उपरोक्त आरोप सत्य के कितने करीब है? तथ्य का तो पता नहीं, मगर हास्यास्पद जरूर लगते हैं। अब जरा इस अवस्था पर ध्यान दें, कोई महिला जिसकी उम्र साठ का आंकड़ा पार कर चुकी है, अपने पति के मरने के समय भी उससे मिलने सिर्फ इसलिए नहीं जाती कि उसे आशंका है कि वापस आने पर उसे अपने देश में घुसने नहीं दिया जाएगा। दूसरी तरफ उसके पति को उससे मिलने के लिए देश में आने नहीं दिया जाता। वह अपने लड़कों से पिछले बीस वर्षों से दूर रह रही हैं। कल्पना करें! आपके घर की छत एक चक्रवात में उड़ जाये और चारों ओर अंधेरा छा जाए। उसके बावजूद एक वर्ष तक मोमबत्ती के सहारे रह रहे ऐसे इंसान पर, क्या उपरोक्त इल्जाम शोभा देतें है? क्या कोई अपने परिवार से दूर, स्वेच्छा से इतने वर्षों तक शारीरिक कष्ट भोग सकता है? यकीन नहीं होता।

शक्तिशाली राष्ट्र विश्व पर अपना प्रभुत्व जमाने के लिए आतंक व शक्ति का सहारा लेते रहे हैं। वियतनाम, तिब्बत, अफगानिस्तान व इराक की कहानी अधिक पुरानी नहीं है। यहां पर यह सवाल नहीं कि अमेरिका और रूस या चीन किस रास्ते पर अग्रसर हैं? लेकिन महाशक्तियों के दांव-पेंच से कोई भी अनभिज्ञ नहीं। ध्यान से देखें तो लालची व जिद्दी बच्चे के स्तर की स्वार्थ, अहम्‌, महत्वाकांक्षा, प्रतिस्पर्द्धा, नासमझी व राजनीति राष्ट्र के स्तर पर भी खेली जाती है। चीन ने सदा बर्मा के सैनिक शासन का समर्थन किया। और उस पर होने वाली किसी भी कार्रवाई के प्रस्ताव के विरोध में यूएन में भी मत डाला। इसे देखकर कोई कह सकता है कि हम आधुनिक काल व विकसित समाज में जी रहे हैं? वर्चस्ववाद की राजनीति मानवाधिकार, मानवीय संवेदना व प्राकृतिक स्वतंत्रता पर सदैव हावी रही है। उपरोक्त महिला की कहानी इस का प्रमाण है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की राजनीतिक गठजोड़ में कौन किसके साथ खड़ा है यह उतना प्रमुख नहीं, मगर इसका भुगतान एक महिला कर रही है, यह देखकर दिल दुखता है। वह भी स्वयं के लिए नहीं राष्ट्र के लिए। अपने जीवन के अमूल्य वर्ष उसकी बहुत भारी कीमत होती है। यह अमानवीयता की हद है। महात्मा गांधी के अहिंसा से प्रभावित सू की ने आधुनिक मनुष्य के इतिहास में निरंतर अत्याचार सहे और आज भी सह रही हैं। सवाल उठता है कि क्या कोई सामान्य मनुष्य इतना बड़ा भुगतान कर सकता है? और फिर कोई भी इंसान इतने कष्ट क्यूं उठाएगा? वो भी अहिंसा के रास्ते। अगर यह स्वयं के लिए होता तो यकीनन वो पहले ही देश छोड़ देतीं। उन्हें देश से चले जाने का प्रस्ताव कई बार दिया गया। अर्थात यह उनका राष्ट्र प्रेम है। यह जानते हुए भी कि उन पर इल्जाम लगते रहेंगे और इस जीवन में उन्हें परिणाम शायद न मिलें, वह निहत्थी औरत आदमियों की दुनिया में शस्त्रों से लैस सेना का सामना निरंतर कर रही है। वह महान हैं। देखें, अंततः कौन जीतता है? जरूरी नहीं कि वह अपने जीवनकाल में जीतें, लेकिन इतिहास उन्हें जिता चुका है।

इक्कसवीं शताब्दी में इस तरह के घटनाक्रम को देखकर लगता नहीं कि हम सभ्य कहलाने लायक हैं। हजारों वर्ष पहले जहां खड़े थे आज भी वहीं खड़े हैं। यकीनन इस अत्याचार का भी अंत कभी न कभी होगा। लेकिन सवाल उठता है कि जनता क्या कर रही है? अपने ही लोगों के बीच में से चंद मुट्ठीभर बने सेना के जवान अपने ही लोगों पर अत्याचार कैसे करते हैं? यहां देखा जा सकता है। यह इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अब भी स्वार्थवश जानवर से आगे नहीं जा पाया। मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हताशा का माहौल बन जाए। कंस, रावण से लेकर साम्राज्यवाद के नाश के लिए कृष्ण, राम व गांधी ने अकेले संघर्ष नहीं किया, जनता ने भी लड़ाई लड़ी, तब जाकर समाज मुक्त हुआ। मनुष्य को जंगली से सामाजिक बनाने की कोशिश में कुछ महान आत्माएं सदैव तत्पर रहती हैं। उनके नाम और चेहरे भिन्न-भिन्न हो सकते हैं। इसी कड़ी में पश्चिमी देश का यू 2 बैंड का विश्वप्रसिद्ध गाना ‘वॉक ऑन’ सू की के लिए लिखा गया था। और अपने एक कार्यक्रम में उन्होंने हर आने वाले दर्शक को सू की के चेहरे वाला मास्क पहनकर आने के लिए कहा था। कुछ हजार साधारण मनुष्य भी एक सच्ची भावना लेकर आगे बढ़ जाएं तो कोई शक नहीं कि यह समाज और ऐसे ही कई देश भयमुक्त होकर वास्तव में स्वतंत्र हो जाएंगे। बात सिर्फ इतनी-सी है कि कहीं हम भी भयग्रस्त होकर गलत पक्ष में तो नहीं खड़े हुए हैं?