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हिन्दी जगत का आईना

पिछले दिनों मैंने एक प्रयोग किया। उद्देश्य था वास्तविकता को जानना। प्रयोग, सत्य तक पहुंचने का एक बेहतर व विश्वसनीय माध्यम है। पढ़ने व सुनने से आधी-अधूरी बात का ही पता चल पाता है। और मात्र देखकर अनुमान लगाने से भ्रम की स्थिति को नकारा नहीं जा सकता। कहते भी हैं, बिना मरे स्वर्ग नहीं मिलता। नदी के प्रवाह की तीव्रता देखनी हो तो बिना पानी में उतरे हुए अंदाज ही लगाया जा सकता है। कल्पनाएं सदा हकीकत के नजदीक हो जरूरी नहीं। और दुनिया को जानने के लिए नींद से जागना होता है। हां, प्रयोग करने में शारीरिक, मानसिक और आर्थिक व्यय भी है। फिर भी यह बोझ एक जुनून के तहत मैंने उठाया। यह सब अगर अपनी सीमा व सामर्थ्य में रहकर किया जाए तो किसी सच को जानने समझने के लिए चंद रुपए कोई भारी कीमत नहीं। जानना चाहता था कि हिन्दी जगत में लेखक, आलोचक, पत्रकार और प्रबुद्ध पाठक किसी अन्य साधारण अनजान लेखक की रचना-पुस्तक प्राप्त होने पर कैसी प्रतिक्रियाएं करते हैं?

मैंने अपनी नवीनतम पुस्तक ÷मेरी पहचान’ कहानी संग्रह को, तकरीबन पचास-साठ व्यक्ति विशेष को पढ़ने के लिए डाक द्वारा सप्रेम भेजने की योजना बनाई। सूची में अधिकांश जाने-माने लेखक, कहानीकार, निबंधकार, स्तंभकार के साथ-साथ विभिन्न कॉलेज और विश्वविद्यालय के प्राध्यापक भी शामिल थे। इसमें दूसरे क्षेत्रों से आकर लेखन की दुनिया में जोर-आजमाइश कर रहे उच्च पदस्थ अधिकारियों के नाम भी थे। ये सभी हिन्दी जगत के चर्चित नाम थे। पत्र-पत्रिकाओं से इनके पते लिये गए थे। सही वर्तमान पता जानने के लिए विभिन्न सूत्रों से इसकी दोहरी जांच कर ली गई थी। मकसद था यह सुनिश्चित करना कि किताब सही हाथों में पहुंचे। इनमें से अधिकांश से मेरी न तो व्यक्तिगत मुलाकात थी न ही कभी बातचीत हुई थी। असल में जानकार लोगों को पुस्तक भेजने पर सही वस्तु-स्थिति का पता नहीं लग पाता। क्योंकि वे या तो किसी न किसी कारण से संपर्क में रहते हैं और बातचीत करते रहते हैं, और न भी हो तो पुस्तक प्राप्त होने पर इसका जिक्र करने के लिए फोन जरूर करते। ऐसी परिस्थिति में उचित जानकारी प्राप्त नहीं हो पाती। यही कारण है जो मैंने उन लोगों को चुना जो नामी, प्रबुद्ध और निरंतर लिख रहे हैं और जिनसे मेरा सीधे कोई संपर्क नहीं। वैसे इनमें से, किसी ने, कहीं किसी पत्र-पत्रिका में मुझे भी पढ़ रखा हो तो मैं इससे इंकार नहीं कर सकता।

उपरोक्त प्रयोग के परिणाम आश्चर्यजनक ही नहीं, मेरी कल्पना से भी बाहर थे। असल में विश्लेषण और अपना मत तो मैं तब देता जब किसी तरह का कोई परिणाम प्राप्त होता। यहां तो सन्नाटा था। कोई प्रतिक्रिया नहीं। पूर्णतः निष्क्रियता। मुझे इन पचास सज्जन पुरुष-महिलाओं में से किसी से भी कोई भी न तो पत्र की प्राप्ति हुई और न ही कोई फोन आया। किसी भी एक ने, शायद किसी भी तरह की सूचना देने की आवश्यकता नहीं समझी। पुस्तक पर चर्चा करना तो फिर बहुत दूर की बात है। हां, एक-दो फोन जरूर आए थे, वो भी इस बात को जानने के लिए कि उनका पता मुझे कहां से मिला। यह सब मेरे लिये अप्रत्याशित था।

कुछ वर्ष पूर्व मैंने अपनी एक पुस्तक खुशवंत सिंह जी के पते पर अति उत्सुकतावश भेजी थी। मैं एक साधारण आम नागरिक हूं और तब तक मेरी उनसे व्यक्तिगत मुलाकात भी नहीं हुई थी। कुछ दिनों के अंदर ही मुझे हस्तलिखित एक पोस्टकार्ड मिला था, जिसमें खुशवंत सिंह जी ने पुस्तक प्राप्त होने की सूचना दी थी। पत्र में इस बात पर खेद व्यक्त किया गया था कि वह हिन्दी आसानी से नहीं पढ़ पाते। साथ ही उन्होंने लेखन में निरंतर आगे बढ़ने की शुभकामनाएं दी थीं। यहां तक लिखा था कि अगर इस उपन्यास का अंग्रेजी रूपांतरण/अनुवाद होता है तो वह इसकी एक प्रति पढ़ने के लिए अवश्य चाहेंगे।

खुशवंत सिंह जी यकीनन एक लोकप्रिय अंग्रेजी लेखक हैं। उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहां शरीर हर प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है, तंग करता है। जितना वह लिखते हैं उस हिसाब से बेहद व्यस्त भी होंगे। उनकी सफलता और लोकप्रियता के कारण उन्हें पुस्तक भेजने वाले व पत्र लिखने वाले सैकड़ों में होंगे। इसके बावजूद उन्होंने पत्र लिखकर मुझे जवाब दिया। अर्थात वह हर एक को पत्र का उत्तर देते होंगे। यह गुण प्रशंसनीय है। यह उनके लोकप्रिय होने का एक कारण भी हो सकता है। यह उनकी महानता और इंसानियत भी है। उनकी इस छोटी-सी बात से मैं भी उनका प्रशंसक बन गया। इसी तरह से सैकड़ों-हजारों प्रशंसक उनके पाठकवर्ग में जुड़ते रहते होंगे।

उपरोक्त उदाहरण से कुछ बातें साफ हैं। कहने के लिए कुछ विशेष नहीं रह जाता। यह सत्य है, हिन्दी जगत में एक तरह की निष्क्रियता है। उदासीनता है। सक्रियता है भी तो उसकी परिधि अपने आसपास के छोटे से दायरे में सिमट कर रह जाती है। यह उदाहरण इस प्रश्न का बहुत हद तक जवाब भी है कि हमारे यहां लोकप्रिय लेखक जन्म क्यों नहीं ले पा रहे? महान बनने के लिए, लोकप्रियता के लिए, छोटे-छोटे मगर सिद्ध सैद्धांतिक कार्य करने होते हैं। इनके माध्यम से हम अपने पाठक से सदा के लिए जुड़ जाते हैं। प्रश्न उठता है कि हम किसी भी कार्य को पूरी ईमानदारी के साथ करने से क्यों हिचकिचाते हैं? जीवन के छोटे-छोटे व्यवहारिक मूल्यों और शिष्टता को क्यों नहीं निभाते? जबकि भारतीय सभ्यता व संस्कृति सामाजिक मूल्यों व आदर्शों पर टिकी हुई बताई जाती है। तो फिर कहीं यह अहं तो नहीं? हो सकता है।

इस उदाहरण को देखें, स्कूल-कालेज से लेकर कार्यालय तक में हर छोटा कर्मचारी अपने से बड़े को नमस्कार करता है और बदले में हल्की-सी मुस्कुराहट मात्र से भी प्रोत्साहित हो जाता है और यही नहीं स्वयं को सामने वाले से जुड़ा हुआ महसूस करता है। उसे लगता है उसे पहचाना गया है। उसके अंदर आत्मविश्वास का प्रवाह तीव्र गति से होता है। चेहरे और आंखों में चमक उभरती है। वह ऊर्जा से भर जाता है। और जब उसे अपने अभिवादन/नमस्कार का जवाब नहीं मिलता तो सामने वाले को वह घमंडी, बदतमीज और सिरफिरा करार देता है। पीठ पीछे उसकी बुराई करता है। हंसी उड़ाता है। डर, अगर कारण रहा तो कुछ दिनों तक तो वह सलाम करता रहेगा लेकिन कुछ दिनों बाद फिर वह भी करना छोड़ देता है। और इस तरह से वरिष्ठ नागरिक फिर चाहे वो अध्यापक हो या अधिकारी, धीरे-धीरे अपने अधीनस्थ कर्मचारी व छात्र से कट जाते हैं। ऐसे लोग अलोकप्रिय रह जाते हैं। उनसे कोई बात करना पसंद नहीं करता। इससे ठीक उलटा जो मुस्कुराकर जवाब दें वह लोकप्रिय और जाना-पहचाना नाम कहलाता है। यह एक स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है।

तो क्या वजह है कि मुझे एक भी हिन्दी के विद्वान सज्जन से पुस्तक प्राप्त होने की सूचना तक प्राप्त नहीं हुई? दूरभाष पर कोई बातचीत नहीं हुई? जबकि मैंने विशेष रूप से अपना मोबाइल नंबर पुस्तक पर लिखा था। तो क्या यह मान लिया जाये कि हिन्दी का लेखक अत्यंत व्यस्त है? या यह स्वीकार कर लिया जाये कि उसे एक साधारण औपचारिकता अदा करने की आदत भी नहीं रही? क्या उसके व्यक्तित्व में आदर्श व संस्कारों की कहीं कमी हो गई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसके अंदर किसी झूठे अहंकार का भाव हो कि उसके पास इस तरह की पुस्तकें तो आती रहती हैं? मेरा अनुमान है मेरी पुस्तक को कुछ एक ने पलट कर देखा होगा। जिन्होंने मेरा नाम सुना होगा उन्होंने कुछ पन्नों को पढ़ा भी होगा। हो सकता है कुछ एक ने पूरी पुस्तक पढ़ी हो। लेकिन अधिकांश ने उसे किनारे फेंक दिया होगा, ऐसी मैं कल्पना कर रहा हूं। इस सत्य को जानने के लिए कि मेरी किताब किस तरह से फेंकी गई होगी? प्रयोग करने का कोई भी दूसरा तरीका नहीं है मेरे पास। मैं किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचना चाहता। लेकिन उपरोक्त प्रयोग का अनुभव अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है। एक सामान्य नये युवा लेखक व पाठक के लिए यह कितना पीड़ादायक होता होगा, मैं अब समझ सकता हूं। भावनाओं को कितनी ठेस पहुंचती होगी, वह कितना हतोत्साहित होता होगा, आज मैं जान चुका हूं। यह हमारे हिन्दी जगत की वर्तमान स्थिति का आईना मात्र है और शायद एक प्रमुख कारण भी। यह हमारी मानसिकता को भी प्रदर्शित करता है। हमारा लेखन का प्रबुद्ध समाज कितना समझदार और व्यवहार कुशल है यह इस बात को भी दर्शाता है। किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं।

ऐसा नहीं कि उपरोक्त वस्तुस्थिति सिर्फ लेखन के क्षेत्र में ही है, आधुनिक भारत के हिन्दी जगत में तथाकथित अन्य सफल लोगों के द्वारा इस तरह के व्यवहार की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। हां, इस प्रयोग का प्रभाव मुझ पर गहरा पड़ा है। अब तक तो मैं किसी भी पुस्तक के प्राप्त होने की सूचना फोन पर या पत्र के माध्यम से कभी-कभी भेजा करता था, पत्र व ईमेल के जवाब देने की कोशिश में रहता था। मगर अब सोचता हूं कि आगे से हर एक पत्र और पुस्तक प्राप्त होने पर जवाब अवश्य दूंगा। चाहे फिर वो एक शब्द या पंक्ति का ही क्यूं न हो। यह मेरी तरफ से एक छोटी मगर अच्छी शुरुआत होगी। क्या आप कर सकेंगे?