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बचपन की यादों का हिसाब दें राज ठाकरे

आगरा में मेरा जन्म दादा-दादी के पास अपने खानदानी मकान में जरूर हुआ परंतु कुछ महीने बाद ही मुझे महाराष्ट्र राज्य के जलगांव जिले में स्थित भुसावल शहर जाना पड़ा था। पिताश्री उस दौरान मध्य रेलवे के महत्वपूर्ण रेलवे जंक्सन भुसावल में पदस्थ थे। यह नगर देश में केले के लिए भी बहुत मशहूर है। और फिर बचपन के पन्द्रह वर्ष वहीं बिताये। अर्थात पूरी बाल्यावस्था। इसे जीवन की नींव कहा जा सकता है। इस उम्र के संस्कार खून में रच-बस जाते हैं। बचपन की पसंद-नापसंद, आदतें, रहन-सहन, खान-पान जिंदगीभर साथ चलती हैं। कम उम्र के गीले मानसिक पटल पर एक बार जो अंकित हो गया वो अमिट होता है। इस उम्र की भाषा, संस्कृति व सभ्यता मनुष्य की पहचान का एक हिस्सा बन जाती है। अब चूंकि मेरे बचपन का शहर महाराष्ट्र राज्य का एक नगर है तो मराठी संस्कृति की अमिट छाप मेरे व्यक्तित्व में होना स्वाभाविक है। स्कूली शिक्षा के दौरान मराठी भाषा का भी अध्ययन किया था। आज मराठी बोल तो नहीं सकता लेकिन इतने वर्षों बाद भी समझ जरूर जाता हूं। संक्षिप्त में कहें तो महाराष्ट्रियन सभ्यता का प्रभाव उत्तर भारतीय होते हुए भी मेरे जीवनशैली में आज भी देखा जा सकता है। गणेशोत्सव पर लेजिम खेलना आज भी याद आता है। और पैर अनायास ही थिरकने लगते हैं। शरीर में अतिरिक्त जोश आ जाता है। खाने में पूरन-पूरी मेरे सर्वाधिक प्रिय व्यंजनों में से एक है। मुझसे बड़ी दोनों बहनें, भुसावल छोड़े तीस वर्ष बीत जाने के बावजूद आज भी महाराष्ट्रियन तरीके से ही खाना बनाती हैं। भुसावली केला सुनकर आज भी आंखें चमक उठती हैं। इतिहास के पन्नों में शिवाजी की वीरगाथा पढ़-पढ़ कर मैं बचपन से जवान हुआ। आज भी मेरी रगों में इन वीरगाथाओं की गूंज कुलांचे मारती हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ही नहीं ग्वालियर के किले में प्रवेश के दौरान भी मुझे अपनापन महसूस हुआ था। चूंकि ये दोनों मराठा परिवार से संबंध रखते थे। मेरे अपनत्व की सीमा यहीं समाप्त नहीं होती और मैं बहुत हद तक अपने आप को महाराष्ट्रियन कहलाने तक के लिए तैयार हो जाता हूं। नौकरी के तहत विभिन्न राज्यों में पदस्थ होने के दौरान जब भी कोई महाराष्ट्रियन परिवार मिलता है तो यह कहने से मैं बिल्कुल नहीं चूकता कि मुझे महाराष्ट्र की संस्कृति से अत्यधिक स्नेह है। और मैं सदैव इन परिवारों से आगे बढ़कर संपर्क बनाने में प्रयासरत रहता हूं। आमतौर पर महाराष्ट्रियन परिवार सुसंस्कृत, सभ्य व साहित्य-संस्कृति-कला में अभिरुचि रखने वाले भले मानुष होते हैं। बचपन का पहला प्रेम, गलियों में होली जलाने की तैयारी और कबड्डी का खेल मुझे आज भी याद आते हैं। भावनाओं के धरातल पर ही नहीं हकीकत में भी देखें तो मैं किसी भी महाराष्ट्रियन पुरुष से, मानसिक, भाषायी, सांस्कृतिक, सामाजिक रूप में कम मराठी नहीं। और इस महाराष्ट्र प्रेम के अभिमान से मुझे कोई वंचित नहीं कर सकता।

उपरोक्त व्यक्तिगत व सामान्य बातों को कहने में कोई विशेष साहस वाली बात नहीं। लेकिन शायद यही बात अगर मैं महाराष्ट्र में जाकर आज कहूं तो मुझे किसी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। इसके बावजूद कि मैं महाराष्ट्र और मराठा की तारीफ कर रहा हूं, लेकिन चूंकि मुझे मराठी नहीं आती और मैं हिन्दी में अपने विचार रखूंगा इसीलिए मुझे बाहरी घोषित कर दिया जाएगा। हो सकता है हिन्दी बोलने के कारण मेरे चेहरे पर कालिख भी पोत दी जाये, और मुझे धमकाया जाये। पीटा भी जा सकता है। असल में कालिख पोतने वाले मेरी बातों को समझ नहीं रहे होंगे। वे तो नादान, नासमझ, भटके हुए युवा हैं, जो हर समाज में मिल जाएंगे। लेकिन दुःख इस बात का होगा कि जो समझ रहे हैं वो भी नासमझ होने का स्वांग रच रहे हैं। राज ठाकरे की परिभाषा की दृष्टि से देखें तो मराठी संस्कृति व महाराष्ट्र पर मेरा कोई हक नहीं। ऐसे में मेरे नाम महाराष्ट्र या मुंबई में कोई जमीन होती भी तो मुंबई मेरी नहीं कहलाती। सत्य है कि मैं आज की तारीख में मराठी बोल नहीं सकता, मैं जन्म से मराठी नहीं, ऐसे में मान लिया जाये कि मैं राज ठाकरे की परिभाषा से मराठी नहीं हुआ, लेकिन फिर बचपन की उन पन्द्रह वर्ष की यादों को मैं क्या करूं जो मुझसे पूरी तरह जुड़ी हुई हैं। और फिर जिसे चाहते हुए भी मैं छोड़ नहीं सकता। इनसे अलग नहीं हो सकता। मगर इसे कोई मुझसे छीन भी तो नहीं सकता, चुरा नहीं सकता। तो फिर? सच तो यह है कि उन मीठी व प्यारी यादों के सहारे आज भी मैं महाराष्ट्र पर अपना बराबरी का भावनात्मक हक दिखा सकता हूं फिर चाहे राज ठाकरे को यह पसंद आये या नहीं। वो चाहे जो कर लें, लेकिन मेरे कोमल संबंधों को तोड़ नहीं सकते। मैं उनसे पूछना चाहूंगा कि क्या मराठी भाषा बोल पाने मात्र से कोई मराठी हो जाता है? क्या मुझसे अधिक मराठी संस्कृति से प्यार करने वाला कोई मराठा मिल सकता है? नहीं। बिल्कुल नहीं।

उपरोक्त अवस्था एक सशक्त राष्ट्र की पहचान होती है जिसमें आम नागरिक कहीं भी स्वतंत्र रूप से रहकर अपनी कर्मभूमि को मातृभूमि की तरह ही प्यार करता है। मुझ जैसे लाखों उत्तर व दक्षिण भारतीय ऐसे होंगे जिन्होंने महाराष्ट्र में अपने जीवन के कई वर्ष बिताये होंगे और उन्हें अपनी यादों में संजोया होगा। और कई आज भी रह रहे होंगे। इन लाखों गैर-मराठी व्यक्तियों से राज ठाकरे उनका भावनात्मक संबंध तोड़ना चाहते हैं। क्या यह संभव है? ठीक इसी तरह ऐसे लाखों मराठी होंगे जो महाराष्ट्र के बाहर सफलतापूर्वक जीवनयापन कर रहे होंगे। इन लाखों-करोड़ों मराठियों से ठाकरे परिवार उनका सुख-चैन छीनना चाहता है। उनकी अपनी जमीन को नीचे से खिसकाना चाहता है। क्या यह ठीक है? क्या वो इंदौर व ग्वालियर के मराठा खानदान को इतिहास सहित वापस महाराष्ट्र ले जा पायेंगे? नहीं। यह वो भी जानते हैं। वो जानते हैं कि जो उनके द्वारा करवाया जा रहा है वो एक सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं होता। वो यह भी जानते हैं कि इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा। मगर वो यह उम्मीद जरूर लगाए बैठे हैं कि इससे उनको राजनीतिक फायदा होगा और वो महाराष्ट्र पर राज कर सकेंगे। माना एक बार ऐसा हो चुका है मगर हर बार ऐसा ही हो जरूरी नहीं। असामाजिक तत्व, भटका हुआ युवा वर्ग, अनपढ़ जनता; यह वर्ग हर समाज, हर देश, हर समय में पाया जाता रहा है। इन्हें बड़ी आसानी से बरगलाया जा सकता है। राज ठाकरे इसी छोटी-सी भीड़ को आम जनता मानकर पूरे राज्य पर शासन करने की नीयत लगाये बैठे हैं। उन्हें महाराष्ट्र से नहीं महाराष्ट्र की राजगद्दी से प्रेम है। मुंह में सत्ता के स्वाद का लार मगर सुनाने दिखाने के लिए राज ठाकरे की जुबान से आग उगलती बेतुकी बातें जब भी सुनता हूं तो दिल बेचैन हो जाता है। बचपन की यादों में बसा सच्चा महाराष्ट्र प्रेम प्रेरणा बनकर उनकी बातों का विरोध करने का प्रयास करता है। मन करता है कि महाराष्ट्र की गलियों में घूम-घूम कर बोलूं कि इस पवित्र व समृद्ध भूमि को कोई बर्बाद करना चाहता है। लेकिन इस तरह सोचने वाले लोग साथ खड़े नहीं होंगे। पढ़ा-लिखा वर्ग अपनी नौकरी और बच्चों में फंसा हुआ होगा। लेखक कुछ लिखने से पहले डरेगा। कलाकार अपनी ही कला के सौंदर्य में डूबा रहेगा और वास्तविक दुनिया से कटा मिलेगा। हर वो आदमी जो असमाजिकता से इत्तफाक नहीं रखता वो इसका दिल से विरोध करने के बावजूद एकत्रित नहीं होगा। और मैं मुंबई की बसों में, गोलियों से भून दिया जाऊंगा या फिर लोकल ट्रेन में पीट-पीटकर मार दिया जाऊंगा। हो सकता है मुंबई की सड़कों में किसी गाड़ी के नीचे कुचल दिया जाऊं। और मेरी आवाज दबा दी जाएगी। और इसीलिए राज ठाकरे की जहरीली आवाज आग उगल रही है क्योंकि इसका विरोध कर सकने वाले लोग मानसिक रूप से कमजोर, आपस में लड़ते हुए अपनी-अपनी दुनिया में स्वार्थवश अकेले जी रहे हैं। अन्यथा कोई वजह नहीं जो लाखों-करोड़ों देशप्रेमी अगर मुंबई की सड़कों में एक बार शांतिपूर्वक निकलें और राज ठाकरे को दृढ़ता से बता दें कि यह मुंबई हम सब की है, तो वो फिर कुछ कर पायें। वैसे भी मुंबई में रहने के लिए किसी परिवार विशेष से सर्टिफिकेट लेने की आवश्यकता नहीं। कोई पूछे कि आज की मुंबई को क्या किसी एक परिवार ने खड़ा किया है। उलटा इसे बॉम्बे से मुंबई बनाकर पहले इसका सिर्फ नाम बदला गया अब ये इसकी आत्मा व पहचान खत्म करने पर तुले हैं। इस परिवार को शायद इतिहास का इतना भी ज्ञान नहीं कि आज की मुंबई को सिर्फ अकेले महाराष्ट्रियन ने ही नहीं खड़ा किया इसे शिखर पर लाने में देश ही नहीं विश्व के हर वर्ग, हर भाषा, हर धर्म के लोगों का बराबर से योगदान रहा है। मगर यह अपनी सूक्ष्म बुद्धि से इस विश्वनगरी को एक कस्बे में परिवर्तित कर देना चाहते हैं। और उस पर अपना शासन। फिर चाहे मराठियों को भी नुकसान ही क्यूं न उठाना पड़े।

सब कुछ जानते हुए भी ठाकरे परिवार का उस तरह से विरोध नहीं हो पा रहा जिस तरह से होना चाहिए। बहरहाल, इंसान चाहे जितना होशियार बन जाए मगर ईश्वर से अधिक कुछ नहीं। प्रकृति का संतुलन सदा आदमी को नियंत्रित करता है। उसने सबका इंतजाम कर रखा है। लोहा लोहे को काटता है और जहर जहर को। यहां भी, असल में बाल ठाकरे द्वारा पैदा किया गया पेड़ राज ठाकरे द्वारा सींचा नहीं काटा जा रहा है। चाचा-भतीजा आमने-सामने खड़े हैं। हिन्दुस्तान की जनता व महाराष्ट्र का आमजन इस तमाशे को चुपचाप देख तो रहा है मगर वो सब समझता है। वो सही समय पर सबक सिखायेगा। इतिहास कभी किसी हिटलर को सिर पर नहीं चढ़ाता। और अगर ऐसा होता तो विश्व इतिहास किसी दूसरे तरीके से लिखा जाता।