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डर के लिए क्या सजा रखी जाए

सड़कों पर मोटर गाड़ियों की संख्या में अचानक कल्पना से भी अधिक वृद्धि हुई है। परिणामस्वरूप अधिकांश सड़कें विगत कुछ वर्षों में ही दोगुनी चौड़ी हुई हैं तो चौराहों पर आधुनिक लाल-हरी बत्तियों का इंतजाम अब छोटे शहरों में भी देखा जा सकता है। दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता ही नहीं चंडीगढ़, जयपुर, अहमदाबाद, पूना, लखनऊ, बंगलुरु, हैदराबाद जैसे अन्य बड़े शहरों में भी यातायात व्यवस्था को और अधिक चुस्त और दुरुस्त किया गया है। इन सबके बावजूद घंटों ट्रैफिक जाम के अतिरिक्त जो एक बात सामने आई है वो है दुर्घटनाओं में वृद्धि। नौजवानों लड़के-लड़कियों की सड़कों पर मौत। इन दुर्घटनाओं के पीछे यकीनन लापरवाही एक विशेष कारण है तो तेज गति इन सब में प्रमुख। इसके अतिरिक्त गाड़ियों द्वारा बाईं ओर से ओवरटेक करना, अचानक अपनी लेन बदलना, गलत दिशा में बिना पूर्व संकेत के मुड़ जाना और सबसे भयानक है लालबत्ती होने पर भी तेज गति से चौराहों को पार करना।

उपरोक्त संदर्भ में एक सामान्य घटना का वर्णन करना चाहूंगा। एक दिन एक चौराहे पर लालबत्ती को पार करते हुए मोटरसाइकिल पर सवार दो नवयुवक निकले थे। वहां खड़े एक बुजुर्ग ने उन्हें जोर से चिल्लाकर टोकने की कोशिश की तो उन दोनों युवकों ने रुक कर और फिर गुस्से में पीछे मुड़कर उस बुजुर्ग पुरुष के साथ वो बदतमीजी की कि आंखें शरम से झुक गईं। मगर वहां खड़े अन्य लोगों ने मूकदर्शक बने रहना ही उचित समझा। इस तरह का व्यक्तित्व हमारी राष्ट्रीय पहचान बन रहा है। बहरहाल, उनकी इस हरकत से बुजुर्ग आदमी सहम गया था। और दोनों युवक गाली देते हुए फुर्र से फिर उड़ गए थे। कोई बत्तियों की परवाह नहीं, पुलिस का डर नहीं। एक तरफ से तेज आती गाड़ियों के बीच में से कलाबाजी खाते और दिखाते ही वे निकल पाये थे। उनके चेहरे के भावों व बॉडी लेंग्वेज ने ऐसे प्रदर्शित किया था कि जैसे मानों कोई बहुत बड़ा काम करके निकले हों। यकीनन इस तरह की गलतियां निरंतर करने पर एक न एक बार चूक हो ही जाती है और सर्कस की कलाबाजियां दिखाने वाले नवयुवक कभी न कभी किसी बड़ी गाड़ी की चपेट में आकर दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। कई बार ये स्वयं के साथ-साथ दूसरों के लिए भी मुसीबत बन जाते हैं। एक और घटना में एक सही दिशा से आ रही कार को गलत दिशा से आ रहे एक नौजवान ने मोटरसाइकिल से हिट कर दिया। कार को नुकसान हुआ था। कार चालक गाड़ी से उतरकर उसे कुछ बोल पाता उसके पहले ही मोटरसाइकिल वाले ने उसे पीटना शुरू कर दिया, जबकि गलती उसी की थी। इसी तरह एक दिन एक चौराहे पर एक नवयुवक द्वारा अचानक लालबत्ती पार करने पर दूर से आ रही मिनी बस ने उसे सीधे टक्कर मार दी थी। नवयुवक ने सड़क पर ही दम तोड़ दिया था। घबराकर मिनी बस का ड्राइवर भाग गया जबकि उसकी कोई गलती नहीं थी। दुर्घटना के वक्त उसकी दिशा के रास्ते का संकेत हरा था और वो नियमानुसार सही था। मगर फिर भी उसके भागने के पीछे कारण यही था कि एक तो जमा हुई भीड़ बिना कुछ जाने और समझे उसकी पिटाई कर सकती थी। दूसरा पुलिस व कोर्ट के चक्कर लगाना उसके लिए बेवजह का दुर्भाग्य लेकर आता। और उसकी बात कोई नहीं सुनता। उसे सही होने पर भी बचने के लिए घूस, रिश्वत वही सब करना पड़ता जो गलत होने पर करना पड़ता है। मगर यहां बात हो रही है मोटरसाइकिल वाले की। और इस तरह की गलती करते हुए नया खून अक्सर सड़कों पर मिल जाएगा। महिलाएं कई बार वाहन चलाते हुए अपना नियंत्रण खो देती हैं। स्कूली छात्र-छात्राओं को यातायात के नियमों के बारे में ज्ञान दिये बिना कई मां-बाप द्वारा सड़कों पर साइकिल चलाने के लिए छोड़ दिया जाता है। ऐसे में ये अनजान अनुभवहीन बच्चे कई बार स्वयं तो कई बार दूसरों के लिए मुसीबत का कारण बन जाते हैं। और फिर दुर्घटना का शिकार होने पर इन्हीं अभिभावकों द्वारा सरकार, पुलिस, बड़ी गाड़ी के चालक, सड़क यातायात व भाग्य को दोष देते देखा जा सकता है।

उपरोक्त दुर्घटनाओं को रोकने के लिए ऐसा नहीं कि पुलिस निष्क्रिय होती है। इन्हें नियंत्रित करने के लिए ट्रैफिक पुलिस जगह-जगह पर चैकिंग करती है। गलती करते पकड़े जाने पर ड्राइवर का लाइसेंस जब्त कर लिया जाता है। कई बार गाड़ी की रजिस्ट्रेशन कॉपी रोक ली जाती है। जिसे फिर न्यायालय से ही प्राप्त किया जा सकता है। कोर्ट में धक्के खाने पड़ते हैं। वकील की फीस अन्य परेशानियों के अतिरिक्त झेलनी पड़ती है, वो अलग। अमूमन पुलिस द्वारा रोड पर ही हजार-पांस सौ रुपए का चालान काटा जाता है। यहां देखने वाली बात यह है कि आज के युग में क्या ये तरीके पूरी तरह कारगर हैं? शायद नहीं। कारण है कि ऐसे कई रईस हैं जो इतना पैसा तो यूं ही रोज फेंक दिया करते हैं। कोर्ट-कचहरी उनके लिए खेल समान है। सामान्य जनता तो वैसे भी कानून अपने हाथ में नहीं लेती और शरीफ लोग पुलिस की चैकिंग देख दूर से ही सतर्क हो जाते हैं। सवाल यहां उठ रहा है उन सिर-फिरे नौजवानों का, जो न तो पुलिस वालों से डरते हैं, और न ही कानून व्यवस्था से। सबसे पहले तो दूर से ट्रैफिक के पुलिस वाले को देख रास्ता बदलकर भागने के चक्कर में रहते हैं। कुछ रईसों के बिगड़ैल तो सीधे पुलिस वालों से लेन-देन की बात करने की कोशिश भी करते हैं। कुछ सामान्य परिवार के अनुशासनहीन बच्चे भी जवानी के जोश में यही गुंडागर्दी करते हैं। यहां प्रश्न उठता है कि इनके साथ क्या किया जाए? स्थानीय पुलिस से संपर्क व संबंध के नाम पर जोड़-तोड़ से छूट जाने की संभावना को छोड़ भी दें तो आखिरकार इन बच्चों को कैसे नियंत्रित किया जाए? वर्तमान में अधिकांश नौजवान अपने मां-बाप से पूर्णतः स्वतंत्र होता है। ऊपर से कई जगह तो प्रभावशाली मां-बाप का पूरा संरक्षण भी प्राप्त होता है। खुली छूट। ये अराजकता फैलाने वाले नवयुवक कई लोगों के जान के दुश्मन बन जाते हैं। आप इन्हें बेंत क्या हाथ से एक थप्पड़ भी मार नहीं सकते, मानवाधिकार वाले आ जाएंगे। ऊपर से प्रजातांत्रिक व्यवस्था का दबाव। सख्ती से पेश नहीं आ सकते राजनीति आ जाएगी। डांटने का इन पर कोई असर नहीं होता। उलटे ये सामने वाले को हंसी का पात्र बना देते हैं। तो फिर इन्हें समझाएं तो समझाएं कैसे? मुश्किल है कि ये समझना ही नहीं चाहते, न ही इन्हें डराया जा सकता है। तो फिर करें तो करें क्या? आखिरकार किसी भी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए डर आवश्यक है। तो ऐसी क्या सजा रखी जाए जो ये डर सके? वैसे तो बिगड़े हुए बच्चों के मां-बाप खुद कुछ समझाएं तो ज्यादा आसान होगा। यह उनके स्वयं के हित में भी है। वरना उन्हें जिंदगीभर पछताना पड़ सकता है। झूठा लाड़-प्यार त्यागना होगा नहीं तो बच्चों से हाथ धोना पड़ सकता है। ऐसा न होने पर, मेरे मतानुसार तो इन बिगड़ैल नौजवानों को पहले तीन बार सावधान किया जाना चाहिए। ऐसा करने के बाद भी नहीं मानने पर चौराहों पर रोककर मुर्गा बनाया जाना चाहिए। कान पकड़ कर उठक-बैठक करने के लिए मजबूर करना चाहिए। जिनसे इन्हें शरम आये। फिर भी न मानने पर इनसे गाड़ियां छीन लेनी चाहिए। इनके द्वारा गाड़ियां चलाने पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए। और अधिक हुआ तो स्थानीय समाचारपत्रों एवं चौराहों पर इनके नाम को सार्वजनिक किया जाना चाहिए। सामाजिक तौर पर इस तरह से पेश किया जाना चाहिए कि इन्हें अकल आ सके। किसी बड़े हादसे से बचना है तो मां-बाप को स्वयं अपने बच्चों पर नियंत्रण रखने के लिए आगे आना होगा। इन नियमों को स्वीकार करना होगा। कोई बेहतर सुझाव हो तो उस पर चर्चा की जा सकती है। वरना लाड़-प्यार में पले बड़े ये नादान किसी दिन दुःख का पहाड़ ला सकते हैं।

मोटरसाइकिल की जगह जब यही नासमझ नौजवान बड़ी गाड़ी चलाता है तो ज्यादा बड़ा कांड कर जाता है। खुद की जगह दूसरों की जान ले लेता है। पहले संजीव नंदा फिर उत्सव भसीन का केस, अभिभावकों को एक सीख के रूप में लेना चाहिए। सड़क पर नादानी किसी भी रूप में उभर कर सामने आ सकती है। दोनों ही केस में देखें, एक हंसता-खेलता परिवार, सफल खानदान, प्रसिद्ध लोग, मगर घर के एक जवान बच्चे की एकमात्र गलती से सब कुछ मिनटों में स्वाह। इन्हें ही नहीं हर मां-बाप को इसे स्वीकार करना होगा कि कोई भी समाज और उसकी न्यायिक व्यवस्था इन दुर्घटनाओं को हल्के से नहीं ले सकती। अन्यथा चौराहों पर मौत का तांडव नृत्य होगा।