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खेल देश बनने का शुभारंभ

सौ करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में दशकों से इस प्रश्न पर सफाई दी जाती रही है कि हम खेल में फिसड्डी क्यों हैं। अस्पष्ट खेल नीति, राजनीतीकरण व पर्याप्त इनफ्रास्ट्रक्चर की कमी के संदर्भ में इतना कुछ लिख दिया गया कि मानों इतने ही शब्द इन वर्षों में पानी बनकर एक नदी में बह चुके होंगे। समाचारपत्र रंगे जाते रहे। टीवी वाले चिल्लाते रहे। और हम भारतीय दर्शक बनकर दूसरों की जीत पर ताली बजाते रहे। हालात इतने खराब हो गए कि हॉकी के नाम से पहचाने जाने वाला देश इस खेल की ओलंपिक प्रतियोगिता से ही बाहर हो गया। क्रिकेट, जिसे विश्व के अधिकांश देश आज की तारीख तक न तो खेलना पसंद करते हैं, और कुछ एक तो शायद जानते भी न हों, इस बात का शक पैदा करता है कि पता नहीं यह खेल है भी या नहीं। विश्व के मात्र दर्जनभर देशों के बीच भी कुछ से जीतते कुछ से हारते हम क्रिकेट पर अपना सारा दिन-महीना-साल बर्बाद कर सकते हैं। खिलाड़ियों को राजा बना दिया जाता है। किसी भी क्रिकेटर को, मात्र एक-दो राष्ट्रीय स्तर पर खेल खेलने के साथ ही चमकदार गाड़ियां, आलीशान बंगले और बॉलीवुड की हीरोइनों की मित्रता तमाम कंपनियों के विज्ञापन के साथ-साथ मिलने लगती हैं। यह खेल विश्वस्तर पर अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया फिर भी हम इसके पीछे पागल हैं। इसके लिए जनता को नासमझ या क्रिकेट के प्रति उनकी दीवानगी घोषित कर देना बेवकूफी होगी। न ही क्रिकेट के कर्ताधर्ता अपनी होशियारी पर स्वयं की पीठ थपथपाएं न ही क्रिकेटर अपने को जन्मजात स्टार समझे। असल में इस देश में क्रिकेट के अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं था। यह तो खेल के प्रति जनता की रुचि है जो उन्हें कुछ और न होने के कारण अंत में क्रिकेट की ओर ले जाती है। यह परिस्थिति ठीक उसी तरह है जिस तरह मतदाताओं के सामने सरकार चुनने के लिए कई बार विकल्प नहीं होता और मजबूरी में किसी एक पार्टी के साथ जाना पड़ता है। मगर बीजिंग ओलंपिक ने इस ढर्रे को तोड़ा है और परिस्थितियों को बदलने में यह बहुत हद तक ऐतिहासिक सिद्ध होगा।

दस मीटर की एयर राइफल निशानेबाजी में अभिनव बिंद्रा का गोल्ड, पहलवान सुशील कुमार को फ्री स्टाइली कुश्ती के 66 किलोग्राम वर्ग में और विजेंद्र कुमार को 75 किलोग्राम मिडल वेट बॉक्सिंग में ब्रांज का मिलना एक ऐतिहासिक उपलब्धि है। भारतीय संदर्भ में ऐसा पहली बार हुआ। ये वो खिलाड़ी हैं जिनसे पदक की उम्मीद नहीं की जा रही थी। और जिन्हें सिर-आंखों पर बिठाया गया वो कुछ विशेष नहीं कर पाये। इसके अतिरिक्त बैडमिंटन में साइना नेहवाल का महिला एकल के क्वार्टर फाइनल में पहुंचना एवं कुछ एक खिलाड़ी को तीरंदाजी में भी इस स्तर तक पहुंचने की उम्मीद न थी। दो मुक्केबाज अखिल कुमार और जितेंद्र कुमार के क्वार्टर फाइनल में पहुंचने से इन खेलों की हवा हिन्दोस्तान में आंधी बनकर बहने लगे तो अतिशयोक्ति न होगी। बीजिंग ओलंपिक में इन तीन पदकों से ही भारत में खेल का परिदृश्य बदल जाएगा। क्रिकेट की दीवानी जनता के पास विकल्प उपस्थित होते ही नजारा बदलेगा। क्रिकेट की चमक-दमक कंपनियों के पैसे, विज्ञापन और मीडिया के प्रचार पर आधारित है। यह भी इसलिए कि बाजार के पास भी देश का नायक दिखाने के लिए कोई विकल्प नहीं होता था। अब इनके पास भी नये चेहरे उपलब्ध होंगे। गौर फरमायें पूर्व में मिलखा सिंह और पीटी उषा जिन्होंने विश्वस्तर पर कुछ विशेष नहीं किया फिर भी हमारे देश में चर्चा में सिर्फ इसलिए रहे कि वे हमारा अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। टेनिस के भूपति और लिएंडर पेस जिन्होंने थोड़ी बहुत हलचल पैदा की, ने भी अपने स्तर पर मीडिया और एड कंपनी में अपनी पहचान बनाई। राज्यवर्धन राठौर ने इसमें इजाफा किया था। साइना मिर्जा वर्तमान में सबसे बड़ी उदाहरण है। जहां विश्वस्तर पर खेलने मात्र ने उन्हें देश में एक नये ब्रांड अम्बेस्डर के रूप में स्थापित किया तो घर-घर में लड़कियों ने टेनिस के बल्ले पकड़ने शुरू कर दिए। हमारे देश में बहुत हद तक एक भीड़तंत्र है। जहां एक क्षेत्र में सफलता मिलने पर सारी भीड़ उसी ओर पागल की तरह बढ़ने लगती है। कुछ नया करने का उदाहरण यहां कम देखे जाते हैं। पिछले कुछ दशकों से क्रिकेट के एकछत्र साम्राज्य ने भारत की जनता, कंपनियों व मीडिया का जबरदस्त दोहन किया। मगर अब परिस्थितियां बदलेगी। मीडिया को अब कुछ नये खेल मिल चुके हैं तो कंपनियों को नये ब्रांड अम्बेस्डर। मात्र अभिनव बिंद्रा का मेडल ही भारत जीतता तो यह संदेश जाता कि उसकी स्वयं की व्यवस्थाओं और मां-बाप की पैसे खर्च करने की क्षमता ने ही उसे इस स्तर तक पहुंचा। परंतु सुशील कुमार और विजेन्द्र ने इस भ्रम को तोड़ा कि एक सामान्य परिवार का खिलाड़ी, बहुत हद तक जिसे निम्न मध्यम वर्ग से भी कहा जा सकता है, इस स्तर तक नहीं पहुंच सकता है। जबकि रातोंरात दोनों करोड़पति बन चुके हैं। यही नहीं जमैका और कीनिया जैसे अविकसित राष्ट्रों द्वारा बेहतरीन प्रदर्शन इस बात का सबूत है कि कमल कीचड़ में पैदा होता है। प्रतिभा को किसी और की आवश्यकता नहीं। व्यवस्थाएं और कोचिंग कुछ हद तक ही फायदा दे सकती हैं। असल है इच्छाशक्ति, प्रेरणा और अपनी मंजिल के लिए निरंतर प्रयासरत रहना, लक्ष्य को सामने रखकर दिन-रात जीना।

अब भारत में घर-घर में पहलवान और मुक्केबाज पैदा होने लगे तो कोई आश्चर्य न होगा। इन खेलों में वैसे भी किसी विशेष बहुत बड़े इनफ्रास्ट्रक्चर की आवश्यकता नहीं। व्यक्तिगत खेल हैं। हां, स्वयं के शरीर और खान-पान पर ध्यान जरूरी है। मेरे मतानुसार तो यह इस बात पर अधिक निर्भर करता है कि आपकी कद-काठी व खान-पान कैसा है। कई क्षेत्र के जींस व वंश वाले शारीरिक आकार में बेहतरीन लंबाई-चौड़ाई के होते हैं। यह एक प्राकृतिक व्यवस्था है। हमारे देश में कुछ एक क्षेत्र में इस तरह के बलिष्ठ लोगों की कमी नहीं। विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा। आज प्राइवेट कंपनियों की नये सितारों की खोज सफल हुई। ये सितारे आसमान में चमक कर कई और लोगों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे। इससे कहीं अधिक अभिभावक अपने बच्चों को पहलवान और मुक्केबाज बनाने में अब पीछे नहीं हटेंगे। इन लोगों को विशेष रूप से दी गई सरकारी व निजी नौकरियां, बड़े-बड़े सम्मान लोगों के बीच हलचल पैदा करेंगे। यकीनन क्रिकेट का सिंहासन अब डांवांडोल होगा। रही-सही कसर 2010 के कॉमनवेल्थ गेम ने पूरी कर देनी है। इस प्रतिस्पर्द्धा में अधिक से अधिक पदक जीतने की कोशिश की जाएगी। कंपनियां भी इन खेलों पर खर्च करने लगेंगी, क्योंकि जनता में भी इन खेलों के प्रति दीवानगी होगी। इस बात का सबूत तभी मिल चुका था जब क्रिकेट की प्रतिस्पर्द्धा छोड़कर करोड़ों भारतीयों ने बीजिंग की बॉक्सिंग देखी।

यहां अभिनव बिंद्रा का कथन विशेष अर्थ वाला है। अपनी जीत को सामान्य घटना के रूप में लेना उनके शांत और परिपक्व स्वभाव को प्रदर्शित करता है। साथ ही उनका यह कहना कि सिर्फ क्रिकेट खेलने से कोई भी देश एक खिलाड़ी देश की पहचान नहीं बना सकता है, बहुत कुछ कह जाता है। अगर हमे विश्वस्तर पर खेल में अपनी पहचान बनानी हैं तो इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा। राजनेताओं एवं अधिकारियों की उठापटक से दूर खेल को खिलाड़ियों के हाथों में सौंपना होगा। उन्हें सुविधाएं उपलब्ध करवानी होंगी। इंजीनियर, डाक्टर, मैनेजमेंट और क्रिकेट के अलावा और क्षेत्रों में भी नाम और पैसा कमाया जा सकता है, मां-बाप को पता होना चाहिए। साथ ही अगर भारत को यकीनन महाशक्ति बनना है तो हर क्षेत्र में अव्वल होना होगा। कुछ एक क्षेत्र में छोटी-मोटी सफलता अर्जित कर लेने मात्र से ही देश आगे नहीं बढ़ता। चीन की तरह हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुंचना होगा। जब तक ओलंपिक पदक तालिका में हम प्रथम स्थानों में नहीं पहुंचते महाशक्ति बनने की गलतफहमी हमें दूर ही रखनी होगी। इसके लिए कठिन परिश्रम, सच्ची लगन और एकाग्रता ही सफलता की पूंजी है। जो हर क्षेत्र के लिए आवश्यक है।