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यह असमानता खतरनाक हो सकती है

दिल्ली से आगरा रेल द्वारा सफर करने वाले यात्रियों की निगाहें, फरीदाबाद के आसपास बाईं ओर देखने पर, वहां खड़े बड़े-बड़े मॉल पर जरूर टिकती होंगी। कुछ एक देखकर प्रसन्न होते होंगे तो कुछ एक अचरज से उन्हें तब तक ताकते रहते होंगे जब तक वो आंखों से ओझल न हो जाएं। जैसे-जैसे ट्रेन आगे बढ़ती है एक के बाद एक, लाइन से, तकरीबन छह-सात आधुनिक मॉल हर एक का ध्यान अपनी ओर अचानक खींचते हैं। ये हिन्दुस्तान के विकास की तथाकथित कहानी बोलते से प्रतीत होते हैं। इसे देख बातचीत में अक्सर कहा जाता होगा कि देश उन्नति कर रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि ये विशालकाय गगनचुंबी इमारतें हमारे आधुनिक होने की पहचान हैं। मगर, इन मॉलों और रेल की पटरियों के बीच फैली हुई अनगिनत झुग्गी-झोपड़ियों की तरफ ध्यान शायद ही किसी का जाता हो। इसके कई कारण हो सकते हैं। एक तो हम सिर्फ अच्छा देखने में विश्वास करते हैं, और ये साफ-सुथरे चमकदार भवन अपनी ओर अधिक ध्यान आकृष्ट करते हैं। दूसरा, झुग्गी-झोपड़ियों से अटे पड़े दृश्यों को देखने के हम आदी हो चुके हैं। लेकिन यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि इन ऊंचे-ऊंचे मॉल और उसके चारों ओर समुद्र के समान फैले इन गरीब व गंदी बस्तियों के बीच भयानक असमानता है। गरीब और अमीर के बीच तो खाई हमेशा से रही है परंतु चिंता की बात यह है कि अब इनमें अंतर एक भयावह स्थिति तक पहुंच चुका है। और साथ ही जिस रफ्तार से मॉल संस्कृति ने अपने पैर पसारे हैं उससे कहीं तीव्र गति से झुग्गी-झोपड़ियों की संख्या बढ़ी है। ऊपर से एक-दूसरे के बगल में होते हुए भी इन दोनों के बीच सदियों की दूरियां हैं।

आर्थिक उदारीकरण के युग ने कई अरबपति पैदा किए तो मिडल क्लास को सबसे अधिक फायदा पहुंचा है। इनकी संख्या में वृद्धि और जीवनशैली में बदलाव आया है। इसे अब लेजर क्लास भी कह सकते हैं। यह आधुनिक है, पढ़ी-लिखी है, इसके पास खर्च करने के लिए पैसे और सांसारिक सुख भोगने के लिए अतिरिक्त समय है। वो अपने जीवन को भरपूर जीना चाहता है, मनोरंजन व मस्ती करना चाहता है। यह एक ऐसा वर्ग है जो अपनी अलग पहचान बनाने के लिए आतुर भी है। मगर दुर्भाग्यवश यह आम जनता से दूर है। इसने अपने घर के दरवाजों को बंद कर लिया है और अंदर एसी, रेफ्रिजरेटर, टेलीविजन, वॉशिंग मशीन, कुकिंग रेंज और महंगे-महंगे नवीनतम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को लगाकर उसी में मदमस्त है। वो इंसान की जगह मशीनों से खेलता है। बाहर की धूल व धूप से उसे मतलब नहीं। अंदर की ठंडक हवा में बंद होकर वो अपने अभिमान में जीता है। इसे अपने पैसे का बहुत गुरूर है, यह नशे में है। यही मिडल क्लास जब घर से निकलकर एसी गाड़ी में बैठकर, खरीदारी व मनोरंजन के लिए बाजार का रुख करता है तो वहां भी उसे इसी तरह का वातावरण चाहिए। यहीं उत्पन्न होती है मॉल की आवश्यकता, जो जन्म देती है एक नये समाज व संस्कृति की कल्पना को। सीने प्लाजा, मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग कम्प्लेक्स की उत्पत्ति। ये आधुनिक बाजार, बंद दरवाजे के अंदर बनायी गयी व्यवस्था है। जिसमें बाहर की हवा का कोई रोल नहीं। ये लेजर मिडल क्लास इस मॉल में घुसकर अपने आप को सुरक्षित महसूस करता है। यहां उसकी आधुनिकता भी झलकती है। यहां आकर वो अपने आपको विशिष्ट समझता है। उसके अहम्‌ की संतुष्टि होती है। वो बाहर, चारों तरफ फैले हुए लोगों को, जो आम दिखते हैं, उन्हें तिरस्कार की भावना से देखता है, वहीं स्वयं को विशिष्ट करार देता हैं। और क्यूं न सोचे, उसके पास घर, बाजार, ऑफिस, वायुयान सारी व्यवस्थाएं विशिष्ट जो हैं। उसका जीवन मखमल की गद्दी की तरह हसीन सपने देखते हुए गुजर रहा है।

उपरोक्त व्यवस्था के विपरीत दूसरी तरफ गरीब जनता दिन-प्रतिदिन और अधिक गरीब हो रही है। आज की बाजार व्यवस्था उसे मोबाइल, टेलीविजन, स्कूटर-मोटरसाइकिलों को दिखा-दिखाकर ललचाती है। इनके विज्ञापन उसे सपनों में भी तंग करते हैं। कहीं-कहीं वो इनके बहकावे में आकर इन्हें खरीद भी लेता है। मगर फिर इसके बाद उसके दुर्दिन शुरू होते है। यह अंतहीन चाहत उसे अपने मायाजाल में फंसा लेती है। और वो इस चक्रव्यूह में फंसकर कहीं का नहीं रह जाता। वैसे तो इन झुग्गी-झोपड़ियों में भी कुछ फर्क आया है बिजली और टेलीफोन इन तक पहुंचने लगे हैं। खाने-पीने, पिक्चर देखने और अन्य मनोरंजन में भी इस वर्ग ने अपनी व्यवस्थाएं कर ली हैं। लेकिन ध्यान से देखें तो यह पहले की अपेक्षा और अधिक गरीब हुआ। एक ओर जितनी इसकी अपेक्षाएं बढ़ी हैं, उतनी मात्रा में उसकी क्रयशक्ति नहीं बढ़ पायी। दूसरी तरफ इसकी सहिष्णुता व समझौतावादी व्यवहार कम हुआ है और विद्रोह की भावना बढ़ी है। जो स्वाभाविक भी है। सूचना ने उसे और उद्वेलित किया है। मगर जब वो कुछ विशेष प्राप्त नहीं कर पाता तो दूसरों से छीनने की कोशिश करने लगता है। और यहीं से शुरू होता है समाज का असंतुलन। परिणाम निकलता है अव्यवस्था, अराजकता, अनुशासनहीनता, असंतोष। आतंकवाद की जड़ें भी कहीं न कहीं इस असमानता के दल-दल में ही पहुंचती है। यहीं पर आकर असामाजिकता, अनैतिकता व अपराध को करने के लिए मनुष्य प्रेरित होता है। आर्थिक उदारीकरण की अंधी दौड़ का नतीजा है कि महंगाई आसमान छूने लगी है और भूखमरी बढ़ी है। जापान में हो रहे जी-8 शिखर सम्मेलन में यह एक मुख्य मुद्दा था लेकिन विश्व नेतृत्व लगता है भविष्य में होने वाली भयावहता से अभी पूर्णतः परिचित नहीं है। और इसे हल्के से लिया गया। यह असमानता अजगर बनकर सभी को निगल जायेगी, अभी यह मानने को भी वो तैयार नहीं।

आधुनिकीकरण ने विज्ञान के इन खिलौनों को घर-घर तो पहुंचा दिया, लेकिन अमीर और गरीब के फासलों को और बढ़ा दिया है। ये दूरियां परस्पर विद्वेष, प्रतिस्पर्धा व ईर्ष्या की भावना को बढ़ाएंगी। यह बहुत ही खतरनाक है। इसके दुष्परिणाम अर्थशास्त्रियों को तो शायद पता न हो परंतु समाजशास्त्र वाले चुप क्यों बैठे हैं यह एक प्रश्नचिह्न है। यहां सवाल यह भी आता है कि अर्थशास्त्र में, मैनेजमेंट में, समाजशास्त्र विषय को अनिवार्य रूप से क्यूं नहीं पढ़ाया जाता? इन वातानुकूलित कमरों में पढ़ाये जाने वाले ज्ञान-विज्ञान के मूल में मनुष्य क्यूं नहीं? उसे इंसान की जगह उपभोक्ता क्यूं बनाया जा रहा है? इस कड़वे सत्य को मानने में कठिनाई हो मगर यह सही है कि वर्तमान व्यवस्था अधिक दिनों तक नहीं चल सकती। सवाल यह भी उठता है कि इस नये पढ़े-लिखे वर्ग को यह क्यूं नहीं बताया जाता कि हजारों की तादाद में उत्पन्न होने वाला यह गरीब वर्ग, जिनके अस्तित्व के ऊपर ही नये अमीरों की अमीरी टिकी हुई है, किसी भी वक्त खतरनाक रूप ले सकती है। ये वर्ग उनको चुनौती भी दे सकता है। हम इतिहास के उन पन्नों को भूल गये है जब यूरोप में बंधुओं मजदूरों ने अपने ही लॉर्ड के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। यह एक सामाजिक क्रांति थी। रईसों के घरों को लूट लिया गया था। गरीब व सताये हुए शोषित वर्ग ने शासन अपने हाथों में ले लिया था। हिन्दुस्तान में ऐसी क्रांति खुलकर तो नहीं हुयी लेकिन समय के साथ-साथ तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का विरोध जमकर हुआ। और लोगों ने इसे धीरे-धीरे ठुकराया। परिणामस्वरूप जमींदारी व्यवस्था कब समाप्त हो गयी पता ही नहीं चला। यह मॉल संस्कृति नई जमींदारी प्रथा का प्रतीक है। मगर इन मॉल बनाने वालों को बाहर की झोपड़ियां क्यूं दिखाई नहीं देती? समय रहते इन्हें आंखें खोलना होगा। अन्यथा बाहर फैली बस्तियों में रहने वाले असंख्य गरीब एक दिन इन इमारतों को घेर लेंगे। ऐसी परिस्थिति में इन्हें अंदर घुसने से रोकने में कोई पुलिस या सिक्योरिटी वाला सक्षम नहीं होगा। और फिर ये कांच की दीवारें एक झटके में टूट जाएंगी और अंदर बैठा लेजर क्लास धूल चाट रहा होगा। क्या हम ऐसी असमानता चाहते हैं?