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क्या वास्तव में ईश्वर है?

मेरे एक दोस्त हैं। बेहद शरीफ इंसान। दिखने में भी और हकीकत में भी। यूं तो हिन्दी के लेखक, विचारक और एक साहित्यिक पत्रिका के संपादक हैं मगर हिन्दी के ही दूसरे तथाकथित लोकप्रिय मान्यवरों से भिन्न। जितना मैं समझता और जानता हूं, मैंने कभी भी उन्हें आधुनिक युग के हथकंडों को अपनाते हुए न देखा न ही सुना। जीवनयापन के लिए मेहनत-मजदूरी तो सभी को करनी होती है, मगर बैंक-बैलेंस की चाहत कभी दिखाई नहीं दी। दो वक्त की रोटी शांति से मिलती रहे, वही काफी है, इसी जीवन-सूत्र के प्रबल पक्षधर हैं। अर्थात सीधे शब्दों में कहें तो एक आम आदमी, एक सीधा-सरल व्यक्तित्व। इसी तरह से उनके लेखन में भी सीधी सच्ची बात हुआ करती है। सिद्धांतों से जीवन और लेखन में कभी समझौता नहीं किया। अब अगर सच्ची और सैद्धांतिक बातें होंगी तो कड़वी भी लगेंगी जो फिर आमतौर पर पसंद नहीं की जाती। बहरहाल, उनके विचारों और लेखन ने मुझे हमेशा प्रभावित किया। और शायद वो भी मुझे पसंद करते हैं। तभी तो जब भी कभी मिलते या दूरभाष पर बातचीत होती तो खुलकर सभी विषयों पर चर्चा होती। इस दौरान कुछ बोलने से पहले सोचना नहीं पड़ता। और वार्तालाप के अंत में सदैव संतोष और आनंद की अनुभूति होती। ऐसे संबंधों को किसी सहारे या नाम की जरूरत नहीं। जहां प्रेम है, गहरायी है, समझ है, समन्वय है वहां कुछ प्रमाणित करने की भी आवश्यकता नहीं। जब भी कभी मन बोझिल होता या फिर पढ़ते-लिखते बोरियत महसूस होने लगती तो बात करने वालों की सूची में उनका नाम प्रमुखता से उभरता। वे अपने छोटे से परिवार में व्यस्त और अति प्रसन्न रहते। जब भी जिक्र आता वो अपने दोनों सुपुत्रों का नाम बड़े गर्व से लेते। माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति स्नेह होना स्वाभाविक है। मगर उनकी बातों से प्रतीत होता कि दोनों बेटे उन्हीं की तरह सरल और सहृदयी इंसान हैं और साथ ही आज के भौतिक जीवन क्षेत्र में भी अच्छा कर रहे हैं। पिछले कुछ समय से कहने लग पड़े थे कि मेरे बच्चे अब कमाने लगे हैं, अब मेरी बहुत सारी मुश्किलें धीरे-धीरे हल हो जायेंगी और आगे का जीवन बेहतर ढंग से आराम से गुजरेगा। ऐसा कहते समय उनके चेहरे पर चमक उभर आती। यही बात दूरभाष पर होने पर शब्दों में आत्मसंतोष को मैं बड़ी आसानी से पकड़ लेता।

कुछ एक महीने पूर्व की बात है, फेसबुक पर जानकारी मिली कि उनके बड़े बेटे का किसी दुर्घटना में अचानक देहांत हो गया है। हिन्दी लेखकों के बीच उनका नाम जाना-पहचाना तो था ही, तमाम सोशल मीडिया पर खबर आने लगीं और शोक संदेश का तांता लग गया। यकीनन स्थानीय मित्रों में अधिकांश उनसे मिलने गये होंगे। और दूसरे शहर के तकरीबन सभी जानने वालों ने टेलीफोन से बातचीत की होगी या एसएमएस तो जरूर किया होगा। मगर मैं ऐसा कुछ न कर सका। कुछ समय के लिए तो मैं विचार-शून्य हो गया था। और फिर बहुत देर तक तो यकीन ही नहीं हुआ कि ये सच भी हो सकता है। और अगर मान भी लिया जाये तो भी उनसे कहने के लिए कोई शब्द नहीं मिल रहे थे। फोन पर क्या कहूंगा, कैसे कहूंगा? इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हो पा रहा था। डर था कि उनकी पीड़ा को संभालते व सांत्वना देते कहीं अपनी भावनाओं में न बह जाऊं। और फिर दूर बैठकर उनकी मनःस्थिति को समझ पाना संभव नहीं। बिना ये जाने कि कोई किस मानसिक अवस्था और पारिवारिक स्थिति में है, किसी का फोन करना उचित नहीं जान पड़ता। इसी कशमकशम में कई दिन बीत गये और मैं संवेदना भी प्रकट नहीं कर पाया। इस दौरान उनके शहर जाना नहीं हुआ अन्यथा व्यक्तिगत रूप से मिलने जरूर जाता। बहरहाल, दूरभाष पर बातचीत करने की अंत तक हिम्मत नहीं हुई। और तब से अब तक पूरी तरह से संवाद टूटा हुआ था। मैं यह तो जानता हूं कि किसी भी तरह की दुखद घटनाओं में शोक संदेश देना या प्रकट करना कितना आवश्यक है। मगर यह किस तरह से दिया जाना चाहिए, यह मुझे सदैव महत्वपूर्ण ही नहीं अति संवेदनशील भी लगता है। अगर यह मात्र औपचारिकतावश किया जा रहा है तो यकीनन यह उस दुखी परिवार को और अधिक परेशान करने के समान होगा। यूं तो ठीक ही कहा जाता है कि मिलने-जुलने से, दुःख बांटने से कम हो जाता है। समय से सभी घाव भर जाते हैं। लोगों के आने-जाने और बातचीत से मन-मस्तिष्क पुनः व्यस्त होने लग पड़ता है। अब क्या किया जाये जिंदा व्यक्ति को तो जीना ही है। कहावत भी है, जीते जी मरा भी तो नहीं जा सकता। और फिर धीरे-धीरे जीवन अपनी गति पकड़ लेता है। संक्षिप्त में कहें तो दुःख व भावनाओं के चक्रव्यूह से पीड़ित व्यक्ति को बाहर लाना जरूरी है। यही जीवन की व्यावहारिकता का पक्ष भी है और समाज की जिम्मेवारी भी, जिसे मैं निभाने से चूक गया था।

विगत दिवस मेरे एक लेख को पढ़कर उनका अचानक फोन आया तो मैं एक मिनट के लिए बड़े पसोपेश में था। क्या कहूं, क्या न कहूं? मगर अंत में मैं अपने दिल की बात कहता चला गया। इतना समय गुजर जाने के कारण वे भावनाओं में तो नहीं बहे मगर धीरे से कहे गये उनके इन शब्दों ने मुझे झकझोर दिया था कि क्या वास्तव में ईश्वर है? ऐसे ही कुछ सवाल मेरे मन में कई मौकों पर, समाज के कई चरित्रों को देखकर, आसपास घटने वाली कई घटनाओं तथा परिवार व मित्रों की कहानी सुनकर उठते रहे हैं। मैं उनके प्रश्न का उत्तर देने के लिए स्वयं को सक्षम तो नहीं मानता, न ही उनके द्वारा भी यह सवाल किसी जवाब की तलाश में पूछा गया था। मगर मैं अनायास ही कह गया कि नहीं। साथ में यह भी कह गया कि जितना जीवन को मैं देख रहा हूं मैंने कई सतपुरुषों को बिना किसी बात के, बिना किसी पाप के बहुत अधिक दुःखी जीवन जीते हुए देखा है। और ऐसे सैकड़ों उदाहरण भी देखे हैं जो जीवन और समाज के समस्त पाप करने के बावजूद बेहद सुखी, सफल और संपन्न जीवन जीते हैं। और अंत में यह भी बोलता चला गया कि अगर ईश्वर होता तो ऐसा नहीं होता और वो होने भी नहीं देता। हो सकता है मेरी ये बातें कई महानुभावों को बचकानी लगे, मगर जीवन के कई मोड़ों पर दुःखी आमजन को ऐसा बड़बड़ाते हुए सुना जा सकता है। सच है, ये विचार मैंने भावावेश में कहे थे। अन्यथा ईश्वर के अस्तित्व पर मुझे कभी कोई संदेह नहीं रहा। उसका रूप-स्वरूप हमारी कल्पना से परे हो सकता है मगर कोई तो है जो हम सबका रचयिता है। तो फिर यहां सवाल उठता है कि क्या उसे ये सब दिखाई नहीं देता? इस पर विद्वानों द्वारा कई तरह के जवाब दिये जाते रहे हैं मगर जिस पर बीतती है उसे तमाम तर्क व्यर्थ नजर आते हैं। और ऐसा कई बार महसूस होता कि यह मात्र दुःखी-जनों को तसल्ली देने के अतिरिक्त कुछ नहीं। कई धर्मों ने इसे पिछले जन्मों से जोड़कर व्यक्ति विशेष की भावनाओं को नियंत्रित करने की कोशिश भी की है। मगर यह बात भी सीधे-सीधे गले से नीचे नहीं उतरती। धैर्य रखना चाहिए, प्रभु पर विश्वास करना चाहिए, और भी इस तरह की तमाम बातें दिल को सांत्वना देने के अतिरिक्त कुछ नहीं है। कमजोर और टूटा हुआ इंसान, जो पहले ही सब कुछ हार चुका हो, वो और क्या संघर्ष करेगा और किससे लड़ेगा? ऐसे पीड़ित लोगों को जीवन में और ज्यादा समझौतावादी, सरल और हर किसी के सामने झुकते हुए देखा गया है। यह उसका स्वभाव बन जाता है और वह जाने-अनजाने ही अपने आप को अपने तक सीमित कर लेता है। उसकी आत्मा तो उसको हर पल कचोटती है मगर वह थक-हारकर अपने भाग्य पर सब कुछ डालकर कुछ हद तक राहत महसूस कर लेता है। उपरोक्त मित्र ने भी जीवन के यथार्थ को स्वीकार तो कर लिया है, ऐसा कुछ महसूस हुआ था। मगर दिल के किसी कोने में दबी-कुचली वेदना उन चंद शब्दों में प्रकट हो रही थी, जहां ईश्वर के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया गया था। इसे आम आदमी के विरोध ही नहीं विद्रोह के रूप में लिया जाना चाहिए। अपने दुर्भाग्य के खिलाफ एक अंतिम प्रयास।

फोन रखने के बाद मैं बहुत देर तक शून्य में था। और फिर इसी बिंदु पर चिंतन करने लग पड़ा था। तमाम आस्तिकों के लिए यह किसी आम प्रश्न से अधिक कुछ नहीं। वो इसके विरोध और अपने मत के समर्थन में तमाम तर्क दे सकते हैं। मगर जीवन मात्र तर्क-वितर्क नहीं। तो फिर क्या किया जाये? धर्म इससे अधिक कि इजाजत नहीं देता। आज के युग में तो वैसे भी अदृश्य ईश्वर के लिए कुछ भी कहने पर कुुछ भी हो सकता है। बहरहाल, मैं उनमें से नहीं कि ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दूं। यह तो मैं पहले ही मान चुका हूं कि दुनिया के समस्त जीवों का निर्माण करने वाला कोई न कोई तो है। किसी न किसी ने मुझ जैसे चरित्र का निर्माण भी किया है। मगर मुश्किल इस बात की है कि उसके इस खेल में कोई नियम दिखाई नहीं देता और अगर हो भी तो वो हमारी समझ से बाहर है। ऐसा प्रतीत होता है, जो आमतौर पर कहा भी जाता है कि हरेक जीव शायद उसके लिए किसी महानाटक के एक चरित्र से बढ़कर कुछ नहीं। अब उसे हर चरित्र को एक-दूसरे से भिन्न करने के लिए तरह-तरह के लोगों की रचनाएं तो करनी ही थीं। किसी के हिस्से में सुख का प्रतिशत अधिक आया तो किसी के पाले में दुःख आ गिरा। यह सब भी ठीक है लेकिन क्या वह अपने तथाकथित नाटक को सुचारु रूप से चलाना नहीं चाहता? जिस तरह के हालात पृथ्वीलोक पर बद से बदतर हो रहे हैं, उसे देखकर लगता तो नहीं। तो क्या वह अपनी ही सृष्टि का विनाश चाहता है? कुछ लोग कह सकते हैं कि ईश्वर अवतार लेते हैं और धर्म की स्थापना करते हैं। मगर फिर उसे हर बार स्वयं आना पड़े क्या यह उचित जान पड़ता है? और कुछ नहीं तो कम से कम वो इस जीवन के खेल के नियम ही बना देता और उसे हर खेलने वाले को बता देता तो शायद उससे हर जीव को कहीं न कहीं तसल्ली रहती। मगर ऐसा लगता है कि ईश्वर नहीं चाहता कि ऐसा कुछ हो। शायद यही कारण है कि उसकी महत्ता बनी हुई है। अन्यथा हम उसे याद कर-करके, उसके आगे-पीछे कभी नहीं घूमते और फिर उसके लिए इतना चिंतन-मनन क्यों करते?