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आधी आबादी आधी जगह

जो कुछ भी गुवाहाटी की सड़कों पर हुआ वह किसी भी मानवीय समाज में स्वीकार्य नहीं हो सकता। यह सभ्य समाज के लिए अकल्पनीय है और सदा से असहनीय है। जिसकी फिर आलोचना, भर्त्सना, विरोध हर स्तर पर होता रहा है। इसके बावजूद ऐसा सदियों से होता आया है और आज भी हो रहा है। बस रूप-स्वरूप बदल जाते हैं। पहले मीडिया के न होने से बातें एक दायरे से बाहर फैल नहीं पाती थीं। आज भी सभी दुर्घटनाएं खबर नहीं बन पाती और इनमें से भी अधिकांश सुर्खियां नहीं हो पातीं। इसीलिए हमें पता नहीं लगता। और फिर जब तक ऐसा कुछ दिखाई-सुनाई नहीं देता, अवाम भी निष्फिक्र होकर मदमस्त भागता-दौड़ता रहता है। यही नहीं, हर काल व समाज स्वयं को उन्नत, प्रगतिशील, आधुनिक होने का खिताब भी देने से नहीं चूकता। मगर फिर मात्र एक घटना हमारी आत्मा और सोच को झकझोर देती है। कई सवाल खड़े होते हैं। राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनता है। तर्क-कुतर्क दिये जाते हैं। ऐसा ही कुछ इस बार भी हो रहा है। मगर मुझे इस बात को लेकर बेचैनी अधिक हो रही है कि कुछ दिनों बाद यह मीडिया की सुर्खियों से गायब हो जायेगा और धीरे-धीरे हम भी भूलकर किसी नयी बहस में अपनी टांग अड़ायेंगे। सोशल नेटवर्क ही नहीं गुवाहाटी की सड़कों से भी यह मुद्दा नदारद होगा। ठीक है, एक खबर को कब तक खींचा जा सकता है? लेकिन फिर सवाल उठता है कि क्या यह मात्र एक सनसनी है? उस कन्या के जीवन की कल्पना कीजिए? वहां सब कुछ बदल चुका होगा। जब हमारी भावनाएं खत्म हो जाती हैं तो हम भी कितने व्यवहारिक हो जाते हैं? सीधे-सीधे कहें तो हम ही उससे सवाल करने लग पड़ेंगे। पीड़िता पर आस-पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों की उंगलियां उठेंगी। शक्तिशाली अपराधीगण किस हद तक जाकर उससे बदला लेंगे, उसकी कल्पना फिल्मों में भी सही ढंग से नहीं की जा सकती। अर्थात एक नवयुवती के जीवन की काली सुरंग में यात्रा आरंभ हो चुकी होगी। जिसका कोई सवेरा हाल-फिलहाल नहीं होगा। समाज के पास वक्त नहीं है। वह घटना की लीपापोती करके अपने रास्ते चल पड़ेगा। जबकि होना तो यह चाहिए कि ऐसा कुछ हो ताकि जिससे इसकी पुनरावृत्ति न हो। ऐसी घटनाओं को हरसंभव रोकने का प्रयास किया जाना चाहिए। हमें ऐसी समाज की परिकल्पना करनी चाहिए, जहां महिलाएं, चाहे फिर वो किसी भी उम्र की क्यों न हों, अपना जीवन स्वतंत्र रूप से सुरक्षित व सम्मानपूर्वक व्यतीत कर सकें। समानता समाज का मूल तत्व है। लेकिन इसे सुनिश्चित कौन करेगा? पुरुष वर्ग!! जो स्वयं इन घटनाओं का दोषी है? कहने वाले कह सकते हैं कि सभी पुरुष एक समान नहीं हो सकते, मगर महिला की मानसिकता को पुरुष वर्ग कैसे समझेगा? दूसरे के बारे में निर्णय देने का हक उसे किसने दिया? क्या उसकी सोच संतुलित और निष्पक्ष होगी? कहने वाले कह रहे हैं कि जो इसके दोषी हैं, उन्हें जेल की सजा देना काफी होगा। कुछ लोगों का मत आया कि उन्हें शारीरिक रूप से कष्ट दिया जाना चाहिए। कुछ का कहना है कि सार्वजनिक रूप से इज्जत उतारकर उन लोगों को सरेआम बाजार में घुमाना चाहिए। यह सच है कि उन्हें उनके किये की सजा मिलनी चाहिए। मगर क्या यह ज्यादा उचित नहीं होगा कि हम यह जाने कि इस तरह की घटनाएं क्यों होती हैं? उसके कारण क्या हैं? और फिर उन कारणों को हटाने की कोशिश की जाये। मूक प्रत्यक्षदर्शी बने मीडियाकर्मी या निष्क्रिय पुलिसवालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही तो होनी ही चाहिए मगर उससे अधिक आवश्यकता इस बात की है कि हम इस बात का पता लगायें कि हमारी विशिष्ट संस्थाएं इतनी संवेदनहीन और अपने सामाजिक कर्तव्य से विमुख क्यों होती जा रही हैं? सवाल तो कई उठते हैं, मगर फिर इन सबके बीच बागपत की पंचायत की घोषणा को क्या कहेंगे? क्या इसे पुरुष-प्रधान समाज के बेहतरीन उदाहरण के रूप में नहीं लिया जाना चाहिए? जहां पुरुष की अपनी मानसिकता का वर्चस्व है। इसमें कोई शक नहीं कि पुरुष वर्ग द्वारा महिलाओं के ऊपर किसी भी तरह का रोकटोक लगाना एक तरह से हमारी भ्रमित मानसिकता का परिचायक है। यह इस बात का द्योतक है कि हम अपनी ही आधी आबादी को अपने अधीन रखना चाहते हैं। नारी को वो सब स्वतंत्रता नहीं देना चाहते जो पुरुष को उसी समाज से प्राप्त है। कुछ समय पूर्व, सीमापार के एक क्षेत्र में, एक महिला पर सरेआम किये गये अत्याचार की वीडियो ने पूरे विश्व में तहलका मचाया था। हम और हमारी मीडिया ने भी इसे खूब परोसा था और जाने-अनजाने खुद की कॉलर ऊंची की थी। वहां की जीवनशैली और महिलाओं की दुर्दशा पर आंसू बहाकर चिंता व्यक्त की थी। हमारे मन में वहां के सामाजिक व धार्मिक व्यवस्था को लेकर आशंका व्यक्त करने के पीछे कहीं न कहीं यह भावना थी कि हमारे यहां ये सब नहीं होता। मगर असम की घटना ने हमें इस बिंदु पर शर्मसार किया है और बागपत इस बात का प्रमाण है कि हम उसी असामाजिकता की ओर बढ़ रहे हैं। इन सबका विरोध तो हो रहा है मगर असल में जिस वर्ग के जिन लोगों से होना चाहिए, वहां से नहीं हो रहा। राजनीति इस पर मौन है तो कारण साफ है। माने न माने, कुछ एक धर्म इसको बढ़ावा देते हैं तो अधिकांश इसके मूक-समर्थक रहे हैं। हैरानी होती है, हमारे तमाम सामाजिक सिद्धांतों व धार्मिक उपदेशों को पढ़कर, जिसमें बड़ी चतुराई से आधी आबादी को नियंत्रित कर दिया गया। इन सबके मूल में जाकर देखें तो पायेंगे, कोई भी कभी भी किसी भी तरह से, आधी आबादी को उसकी आधी जगह, कहीं भी किसी भी क्षेत्र में देने को तैयार नहीं। संगठित पुरुष ने महिलाओं को कभी भी उभरने नहीं दिया। दूसरी तरफ युगों की गुलाम मानसिकता का असर है जो महिला वर्ग भी न तो ठीक ढंग से सोच पाता है न ही समझकर संगठित होकर आगे बढ़ पाता है। उनकी भ्रमित मानसिकता और आपस में उलझने का यही प्रमुख कारण है। सदियों की सामाजिक प्रथा का नतीजा है कि आधुनिकता के नाम पर स्वतंत्रता मिलने पर वो अपना स्थान सही रूप में स्थापित नहीं कर पा रही हैं। और आपाधापी में अमूमन ऐसे मार्ग पर चल पड़ती हैं जो खुद अपनी दिशा नहीं जानता।समाज दोनों लिंगों के बिना नहीं चल सकता। यह प्रकृति का नियम है। मगर दोनों अपनी-अपनी स्वतंत्रता मिलने पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं चूकते। जबकि मानवीय समाज के अस्तित्व का आधार ही संतुलन और सामंजस्य है। जिसमें दोनों वर्ग को अपनी उपस्थिति, शक्तियां, और सीमा-क्षेत्र परिभाषित किये जाने की आवश्यकता है। यह कार्य किसी-किसी संस्कृति व सभ्यता ने शताब्दियों में धीरे-धीरे विकसित किया। समयानुसार इसमें परिवर्तन भी किया गया। मगर पिछले कुछ वर्षों में हमने आधुनिकता की अंधी परिभाषा और स्वतंत्रता के उच्छृंखल स्वभाव की तरह समाज का तानाबाना बड़ी जल्दी तोड़-मरोड़ दिया। फास्टफूड कभी स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद नहीं हो सकता। मगर हमने इसे खूब खाया और आज भी खा रहे हैं। ऐसे में समाज की सेहत तो बिगड़ेगी ही। इसका खमियाजा भी तो फिर हमें ही भुगतना होगा। और फिर ऐसे में हम इन गंभीर मुद्दों को छोड़कर, जब इन घटनाओं पर अपनी त्वरित प्रतिक्रिया देने लगते हैं तो शरीर के ऊपर उग रहे घावों को तो हम दबाने का प्रयास करते हैं लेकिन इस बात को नहीं जान पाते कि यह घाव हो क्यों रहे हैं? तो फिर इसका इलाज कैसे संभव है? समाज आज अंदर की भयानक बीमारी से ग्रसित होकर गली-गली, गांव-गांव किसी अच्छे अनुभवी डॉक्टर की तलाश में भटक रहा है। उसे मोटी फीस लेने वाले बड़े-बड़े आलीशान मकानों में विभिन्न यंत्रों के साथ लैस स्पेशलिस्ट डॉक्टर तो मिल रहे हैं मगर उसकी बीमारी को जड़ से दूर करने वाला समझदार डाक्टर नहीं मिल पा रहा। जो सतही इलाज हो रहा है वो बीमारी को उलटा असाध्य बनाता जा रहा है। इस युग की यही सबसे बड़ी विडम्बना है।