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शिक्षा की दुकानें

ग्रेटर नोएडा के एक क्षेत्र में अनगिनत शैक्षणिक संस्थाओं को एक कतार में खड़ा देख मैं हैरान हुआ था। ऐसा दृश्य अन्य शहरों में भी देखा जा सकता है। थोड़ा-सा ध्यान से देखने पर नाम से ही समझ में आ रहा था कि अधिकांश कॉलेज इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कोर्स से संबंधित हैं। सीमित क्षेत्र में बनी कंक्रीट की ये खूबसूरत बिल्डिंगें पहले पहल तो किसी शिक्षण संस्थान के होने का अंदेशा भी नहीं देतीं। हो सकता है मन के किसी कोने में अंकित बचपन के विद्यालय-कॉलेजों की तसवीरों से मेल न खाने के कारण ऐसी भावना उपजी हो। एक ही जगह सड़क के दोनों ओर इन संस्थाओं के झुंड से किसी बाजार में होने का अहसास हो रहा था। मगर आसपास टहलते छात्रों की संख्या उस अनुपात में काफी कम लग रही थी। इस बात ने मुझे सोचने के लिए मजबूर किया था। कई सवाल खड़े हुए थे। इन संस्थाओं में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या क्या वास्तव में कम है? अगर हां तो क्यूं? अपवादों को छोड़ दें तो क्या यहां से पढ़कर निकलने वाले आम छात्रों को उचित नौकरी मिल पाती है? इस सवाल के पहले यह प्रश्न ज्यादा गंभीर होकर उभरा था, विशेष रूप से इंजीनियरिंग कॉलेज के संदर्भ में, कि क्या इन कॉलेजों में समुचित तकनीकी शिक्षा दी जा रही है? इस सवाल के उठने के पीछे कारण था। असल में पूर्व में बनी विशालकाय इंजीनियरिंग संस्थाओं के सामने ये बहुत छोटी और अनुभव के हिसाब से अपर्याप्त महसूस हो रही थीं। संदेह का होना स्वाभाविक है, या तो पहले की तकनीकी संस्थाएं बेवजह इतनी बड़ी-बड़ी बनाई गईं या फिर आज की संस्थाएं आवश्यक शिक्षा के हिसाब से नाकाफी हैं? अगर यह मान भी लें कि पूर्व में अधिकांश संस्थाएं शासकीय होने के कारण उनके पास बड़े-बड़े भूखंड हुआ करते थे, जिनकी अब आवश्यकता नहीं, तब भी उनमें समायोजित विभिन्न प्रयोगशाला, बड़ी-बड़ी कार्यशाला और पुस्तकालय की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में इन शिक्षण संस्थाओं को देखकर मन में आशंका का उठना स्वाभाविक है।

इसी संदर्भ में एक दोस्त के वक्तव्य ने मुझे चौंकाया था। उसके मतानुसार भोपाल जिला में इस वक्त एक सैकड़ा के आसपास इंजीनियरिंग शिक्षा संबंधित कालेज होंगे। सुनकर मैं हैरान हुआ था। इतनी संख्या में तो शायद विद्यालय भी भोपाल शहर में नहीं होंगे!! अगर यह आंकड़ा सही है तो इतने छात्र इन कॉलेजों को कहां से मिलते होंगे? सुना है कि शायद यही कारण है जो हजारों सीटें हर राज्य में खाली पड़ी रहती हैं। ऐसा ही कुछ हाल मैनेजमेंट संस्थाओं का भी है। जबसे शिक्षा के क्षेत्र को प्राइवेट संस्थाओं के लिए खोला गया है, तब से ऐसी स्थिति बनी है। इसमें कोई शक नहीं कि आबादी के अनुपात में शिक्षण संस्थाओं की कमी के कारण जहां एक तरफ प्रतिस्पर्धा बहुत कठिन और जटिल हो चुकी थी वहीं अधिकांश छात्रों को शिक्षा भी नहीं मिल पा रही थी। मगर क्या उसका समाधान इस तरह से अनियंत्रित छूट देकर किया जाना उचित है? इस पर कई प्रश्नचिन्ह लगाये जाने चाहिए। और इसके पीछे कारण हैं। अति किसी भी चीज की खराब होती है और अनगिनत खुल रहे इन कॉलेजों की अपनी कई मुश्किलें हैं।

असल में यह देखकर कि शिक्षा के क्षेत्र में व्यवसाय की अकल्पनीय संभावना है, समाज के तकरीबन सभी क्षेत्र के प्रभावशाली व्यक्तियों ने अपने पैसे इसमें लगाये। फलस्वरूप बिना किसी व्यवस्थित योजना के तकनीकी शिक्षा एवं मैनेजमेंट कोर्सेस की संस्थाएं खुलती चली गईं। शिक्षा का सीधे-सीधे जीवनयापन से संबंध होने के कारण और आज के व्यवसायिक युग में नौकरी की प्रबल संभावना को देखते हुए तकनीकी और मैनेजमेंट के कोर्स का सर्वाधिक मांग होना स्वाभाविक था। यह कुछ-कुछ उसी तरह था जिस तरह अंग्रेजी की मांग को देखकर गांव-गांव, गली-गली अंग्रेजी स्कूल खुल गये। जहां छात्र न तो पूरी तरह अंग्रेजी सीख पाता है, साथ ही मातृभाषा ज्ञान को भी कमजोर कर लेता है। शिक्षा में ऐसी व्यावसायिकता के साइड इफेक्ट्स के लिए क्या समाज तैयार है? कुछ और हो न हो लेकिन इसमें निहित विरोधाभास को समझना जरूरी है। एक व्यवसायी जब अपना पैसा लगाता है तो उसका मूल उद्देश्य अमूमन लाभ कमाना होता है। फिर चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र ही क्यूं न हो। और फिर वो धन प्राप्ति के लिए व्यवसाय के वही सब दांव-पेंच खेलता है, जो बाजार में चलते हैं। मगर सवाल उठता है कि क्या शिक्षा के क्षेत्र में बाजार की प्रतिस्पर्धा उचित है? समाज की दृष्टि से तो स्वाभाविक रूप से यह ठीक नहीं। मगर बाजार में उचित-अनुचित की कोई परिभाषा व सीमा सुनिश्चित नहीं। एक छोटा-सा उदाहरण देखें। व्यवसाय में लाभ के लिए अधिक से अधिक बिकना आवश्यक है, फिर उसके लिए मार्केटिंग के तमाम हथकंडे अपनाये जाते हैं। बाजार हर बात के पैसे उपभोक्ता से वसूलता हैं। और पैसा पैसे को खींचता है। मगर अंत में ऊंचा दाम किससे लिया जाता है? क्या सभी उत्सुक व होनहार छात्र मोटी रकम दे सकने में समर्थ होते हैं? नहीं। मैनेजमेंट कोर्स की फीस लाखों में देखकर तो हैरानी होती है। मात्र डेढ़ से दो वर्ष के लिए इतने पैसे!! क्या पैसे से मैनेजमेंट सीखा जा सकता है? बहरहाल, और कुछ हो न हो हां, पैसे का कुचक्र चल पड़ता है। शिक्षा के क्षेत्र में पैसे का प्रयोग कितना हानिकारक हो सकता है कल्पना करना मुश्किल नहीं। मगर एक आम व्यवसायी से इस मुद्दे पर किसी राहत की उम्मीद करना उचित न होगा। उलटा वो तो अपने उद्देश्य प्राप्ति में पूरे जोर-शोर से लगा होता है। हर एक कॉलेज द्वारा, एक दुकान की तरह अधिक से अधिक छात्रों को आकर्षित करने के लिए ऐसे-ऐसे हथकंडों का उपयोग किया जाता है जो मार्केटिंग की शब्दावली में तो एक बार अच्छे से समझे जा सकते हैं मगर शिक्षा के लिए यह घातक ही होंगे। जो फिर समाज के लिए किसी भी तरह उपयोगी नहीं हो सकते। ऐसे बहुत सारे झूठे वायदों का पिटारा खोला जाता है कि छात्र एवं अभिभावक एक उपभोक्ता की तरह भ्रमित हो जाते हैं। उदाहरण, कई कालेज इस बात का दावा करते हैं कि वे अपने शतप्रतिशत छात्रों की नौकरी सुनिश्चित करते हैं। जबकि हकीकत कुछ और होती है। कई बार ऐसा पाया गया है कि व्यवसायिक घरानों से मिलकर कुछ समय के लिए छात्रों को नौकरी दिला दी जाती है और फिर कुछ समय के पश्चात विभिन्न कारणों को दिखाकर निकाल दिया जाता है। इस प्रक्रिया का अंत चाहे जो हो शिक्षण संस्थाओं का नाम और काम तो हो ही जाता है।

इस क्षेत्र में बड़े-बड़े प्रभावशाली लोगों के आ जाने के बाद खेल भी बड़ा हो गया है। सुविधा के नाम पर छात्रावास में बहुत कुछ दिया जाता है मगर मोटी रकम भी वसूल की जाती है। आमतौर पर ये आम आदमी की पहुंच से बाहर होता है मगर ऊंचे सपनों को पाने के चक्कर में लोग कर्जा लेने से भी नहीं चूकते। उधर, पैसा खर्च करने से आजकल क्या नहीं हो सकता। शिक्षण संस्थाओं द्वारा झूठी मगर बड़ी-बड़ी तारीफें कई पत्र-पत्रिकाओं में छपवा दी जाती हैं। मैनेजमेंट के सारे प्रयोग यहां किये जाते हैं। और इस तरह से कुछ संस्थाएं थोड़े अंतराल में बड़ा नाम कमा लेती हैं। अंततः शिक्षा में इस व्यवस्था का समाज में कहां-कहां दुरुपयोग और दुष्प्रभाव हो सकता है, उसकी आशंका देखने में तो बहुत छोटी लगती है मगर उसके परिणाम दूरगामी होते हैं। वे संस्थाएं जिन्होंने करोड़ों रुपये फूंककर कंक्रीट की विशाल दुकानें खड़ी कर दीं उनके खाली पड़े रहने से अर्थव्यवस्था पर क्या असर पड़ेगा इसका आकलन आर्थिक विशेषज्ञ अपनी आंख-मूंदकर चाहे जो कहे मगर आम आदमी को भी समझने में मुश्किल नहीं।

किसी जमाने में आईटीआई से निकलने वाला बालक तकनीशियन और पॉलिटेक्निक से निकलने वाला छात्र जूनियर इंजीरियर और गिने-चुने इंजीनियर कालेज से निकलने वाला युवा इंजीनियर बना करता था। इन कालेजों में अपनी-अपनी योग्यता के हिसाब से दाखिला मिलता था तो फिर पास होने पर उसी तरह की नौकरी प्राप्त होती थी। मगर तमामउम्र व्यक्ति संतुष्ट रहता था। आमतौर पर सभी के जीवन में संतोष होता था। आज कहने के लिए तो यह बहुत अच्छा लगता है कि अत्यंत कम अंक लेने वाला छात्र भी इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त कर रहा है और हर दूसरा युवक मैनेजमेंट कर रहा है। मगर हम यह भूल जाते हैं कि उसकी अपेक्षाएं बढ़ाकर उसके साथ कितना अन्याय किया जा रहा है। आज छोटे-छोटे तकनीकी कार्य के लिए भी इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त छात्रों को लिया जाता है। सामान्य होटलों एवं ब्रांडेड दुकानों में मैनेजमेंट विद्यार्थी को नौकरी करते देखा जा सकता है। ऐसे में बड़े-बड़े सपने पाले कालेज से निकलने वाला छात्र का जब हकीकत से पाला पड़ता है तो वह कुंठाग्रस्त हो जाता है। इसके बावजूद इस पैकेज की शब्दावली में सिमटते हमारे युवावर्ग की मानसिकता का संस्थाएं भरपूर फायदा उठाती हैं। और यह धंधा खूब फूलफल रहा है। इससे वास्तव में कितना फायदा हो रहा है यह तो छात्र और अभिभावक इस दौर के गुजरने के बाद ही समझ पाते हैं मगर तब तक शायद देर हो जाती है। जीवन में पीछे मुड़कर देखा तो जा सकता है मगर वापस जाया नहीं जा सकता। पीछे खड़ी भीड़ आपको रुकने भी तो नहीं देती। और फिर हर दुकान में साइन बोर्ड भी तो लगा होता है कि बिका हुआ माल वापस नहीं लिया जाता।