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राजतंत्र की सफलता का राज

शासन व्यवस्था के लंबे इतिहास में भिन्न-भिन्न प्रकार के शासकीय तंत्र हुए। सबका अपना-अपना समय काल रहा। इनमें से कई समय के साथ धीरे-धीरे लुप्त हो गये तो कुछ अपनी उपस्थिति यदाकदा बनाये रखने में सफल हुए। सबके अपने-अपने सशक्त बिंदु थे तो उनकी खामिया सिंहासन पर विराजमान होने के बाद ही उजागर हुईं। और कालांतर में इन कमियों ने ही नयी शासन व्यवस्था को बनाने के लिए चिंतकों व समाजशास्त्रियों को प्रेरित किया। इसमें आमजन का दबाव भी काम करता है। मगर किसी भी परिवर्तन से अवाम को असल में कितना फायदा हुआ? यह प्रश्नचिन्ह भी साथ ही सदा बना रहा। इन सबके बीच में एक बात सीधे तौर पर पूरी तरह सत्य है कि राजतंत्र का समय काल सबसे लंबा और प्रभाव क्षेत्र विस्तृत रहा है। एक तरफ सफल राजाओं की जहां कमी नहीं वहीं अलोकप्रिय राजपरिवार भी इतिहास के पन्नों में भरे पड़े हैं। बहरहाल, पिछले करीब दो शताब्दी को प्रजातंत्र का युग कहा जा सकता है। यह धीरे-धीरे चारों ओर अपने पैर फैला रहा है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि बहुत कम समय में ही इसकी आलोचना आरंभ हो चुकी है। इसकी कमियां उजागर होने लगी हैं। मगर आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रजातंत्र में भी राजतंत्र का प्रतिबिंब देखा जा सकता है। प्रजातंत्र के अंधसमर्थक और राजतंत्र के धुर-विरोधी भी इस जमीनी हकीकत को झुठला नहीं सकते। फिर चाहे वो इसके पक्ष या विपक्ष में चाहे जो तर्क-कुतर्क दें। हम स्वयं देख सकते हैं कि तीसरी दुनिया एवं विकासशील देशों में जहां-जहां प्रजातांत्रिक व्यवस्था है वहां जाने-अनजाने ही कुछेक राजनीतिक परिवारों का शासन व्यवस्था में वर्चस्व है। यूं तो विकसित देशों में भी कुछ इसी तरह के उदाहरण देखे जा सकते हैं। मगर वहां की व्यवस्था ने समय रहते इस पर उचित कार्यवाही की। गनीमत है कि अमेरिका में एक व्यक्ति के दो बार से अधिक राष्ट्रपति बनने पर रोक है। इन सबके बावजूद बुश परिवार एवं क्लिंटन दंपति का प्रभाव अमेरिकी राजनीति में आसानी से देखा जा सकता है। बीते समय में कैनेडी परिवार के वर्चस्व को कौन भूल सकता है।

तो क्या इसका अर्थ यह निकाला जाये कि प्रजातंत्र में भी राजतंत्र का प्रभाव बना हुआ है? इस शंका को हम सीधे-सीधे निर्मूल साबित नहीं कर सकते। इसके कारण हैं। प्रजातंत्र में राजतंत्र के कई लक्षण देखे जा सकते हैं। जो उपरोक्त आशंका को पुख्ता करते हैं। एक तरफ राजतंत्र पूरी तरह से वंशवाद पर निर्भर है तो प्रजातंत्र में भी सत्ता की गद्दी पर कुछ प्रभावशाली परिवारों का वर्चस्व प्रारंभ से चला आ रहा है। एक ही परिवार के सदस्य किसी न किसी तरह सत्ता पर विराजमान हो जाते हैं। और यह सिलसिला पीढ़ी दर पीढ़ी चलता हुआ देखा जा सकता है। कई बार इन परिवारों को आपस में लड़ते हुए देखा जा सकता है। जिसे फिर राजाओं के बीच हुए युद्धों के रूप में लिया जाना चाहिए। बस फर्क सिर्फ इतना है कि शस्त्रों की जगह शब्दों का इस्तेमाल होता है। और इन परिवारों के भीतर की लड़ाई को राजतंत्र में सिंहासन के लिए हुए षड्यंत्रों के समक्ष रखकर देखा जाना चाहिए। राजवंश की तरह फिर यहां भी रिश्तों की कोई अहमियत नहीं रह जाती और मर्यादा शब्द अर्थ खो देते हैं। राजतंत्र में छोटी-छोटी रियासतें कई राज परिवारों की महत्वाकांक्षाओं के कारण अस्तित्व में आती थीं तो प्रजातंत्र में भी बड़े-छोटे परिवारों के अपने-अपने क्षेत्र हैं। दोनों ही तंत्र में, एक तरफ परिवार का मोह कुछ भी करा ले जाता है तो अलग होने पर ये किसी भी हद तक जाने को भी तैयार हैं। प्रतिभा का राजतंत्र में कोई मूल्य नहीं तो प्रजातंत्र में भी कई वरिष्ठ राजनीतिज्ञों को विशिष्ट परिवार से संबंधित साधारण व युवा राजनेता के आगे नतमस्तक होते देखा जा सकता है। राजा कानून से ऊपर होता था तो प्रजातंत्र का शक्तिशाली परिवार कानून को नियंत्रित करना जानता है।

अब सवाल उठता है कि आखिरकार ऐसा क्यों? कहीं यह अवाम की गुलाम मानसिकता का प्रतीक तो नहीं? इसे समझने के लिए सर्वप्रथम, अवाम शासन व्यवस्था के लिए क्या सोचता है, उससे क्या अपेक्षा करता है? इस पर कुछ प्रकाश डाला जाना चाहिए। राजाओं के समय में अवाम को इस बात की फिक्र नहीं होती थी और न ही वो इस प्रकार की जिम्मेवारी को उठाना चाहता था कि अगला राजा कौन होगा? यह आम चर्चा का विषय जरूर था मगर उससे अधिक कुछ नहीं। यह राजपरिवार विशेषकर राजा का विशेषाधिकार होता था। हां, कई बार राजकुमारों के बीच चुनाव राजा के लिए मुश्किल पैदा करता था। इससे बचने के लिए वह अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद पर प्रारंभ से ही अपनी मोहर लगा देता था जिसे अमूमन सब स्वीकार कर लेते थे। ऐसा न होने पर भाइयों में द्वंद्व होता था। और फिर यह मारकाट और षड्यंत्र का मुख्य कारण बनता था जिसमें राजपरिवार की अहम भूमिका होती थी। अवाम इस दौरान भी राज परिवार की तरफ आशाभरी निगाहों से देखता रहता था। उसकी कोई भूमिका नहीं होती थी। असल में उसकी इच्छाएं भी सीमित हुआ करती थीं। वह रोटी, कपड़ा और मकान के अतिरिक्त मात्र सुरक्षा की अपेक्षा रखता था। इतिहास को देखें तो जिन राजाओं ने इन छोटी मगर मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा किया और व्यर्थ में अपने अवाम को तंग नहीं किया वे सफल रहे। ऐसा कभी नहीं हुआ कि जनता के लिए आसमान के तारे तोड़कर लाये गये हों। हां, उन्हें समय-समय पर दिवास्वप्न जरूर दिखाये गये। राजाओं की महत्वाकांक्षाओं को राष्ट्र की इच्छा बनाकर बड़ी चतुराई से भावनाओं में लपेटकर अवाम को परोसा जाता था। पड़ोसी दुश्मन राज्यों का डर भी इस्तेमाल किया जाता था। राजा का कथन किसी ब्रह्म-वाक्य से कम नहीं होता था। यही नहीं आमजन अपने राजा में आभामंडल भी ढूंढ़ लेता था। असल में राजपरिवार अंध-विश्वास के साथ-साथ कौतूहलता का विषय हुआ करता था। वे कहीं-कहीं राजा को ईश्वर से जोड़कर देखा करते थे। राजा सभी तरह की विपत्तियों से अवाम को बचायेगा ऐसा विश्वास किया जाता था। हाथ जोड़कर अपने दुःखों का बयान और आशाभरी निगाहों से इसका निवारण यही अपेक्षा रहती थी। इस अवस्था को एक तरह की मानसिक गुलामी ही तो कहेंगे। मगर धीरे-धीरे बाद में इस शब्द ने ही अवाम की भावनाओं को भड़काया और उसे राजतंत्र के विरुद्ध खड़ा कर दिया। ‘राजा की प्रजा’ इस भावना के आवेग ने ही राजतंत्र नाम को बहाकर ‘प्रजा का तंत्र’ स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। लेकिन ध्यान से देखें तो जमीन पर कुछ नहीं बदला। उपरोक्त तथ्य आज भी यदाकदा देखे जा सकते हैं। असल में मूल रूप से अवाम सदा स्वयं शासित होने के लिए तैयार रहता है। यह उसकी नियति नहीं उसका स्वभाव है। वो शक्ति की भाषा को तुरंत स्वीकार करता है। यहां राजा और प्रजा के बीच के संबंध को प्राकृतिक दृष्टि से भी देखें तो एक बार के लिए तो अजीब लगता है, मगर यह कटु सत्य युगों-युगों तक चला। मनुष्य, विकास के प्रारंभिक दौर से ही स्वयं के लोगों द्वारा शासित होता आया है। बुद्धि के विकास के बावजूद वो शक्ति के आगे समर्पित होता रहा है। आधुनिक युग में भी कुछ विशेष नहीं बदला। तथाकथित पढ़ा-लिखा वर्ग अब शब्दों और विचारधाराओं से प्रभावित किया जाता है। कई हास्यास्पद उदाहरण देखे जा सकते है। कई जगह वो अपने शासक वर्ग के सौंदर्य तो कहीं वाक्‌चातुर्य से प्रभावित हो जाता है। यहां कई विशिष्ट व्यक्तियों का कृत्रिम आभामंडल बनाया जाता है। यही सब कारण है जो सदियों तक राज व्यवस्था बरकरार रही। और प्रजातंत्र में भी रूप बदलकर शासन कर रही है।

मगर फिर सवाल उठता है कि क्या वजह है कि तानाशाही तंत्र को पसंद नहीं किया जाता? यूं तो यहां भी एक किस्म से एक व्यक्ति एवं परिवार का ही शासन होता है। इसे इस रूप में लिया जा सकता है कि तानाशाह एक प्रकार से अलोकप्रिय राजा है। जिन्हें मुखौटा पहनना नहीं आता। शब्दों की जादूगरी नहीं आती। जो स्वयं को भावनात्मक रूप से अवाम के बीच स्थापित नहीं कर पाते। फिर चाहे वो जितना अच्छा काम करें। जबकि प्रजातंत्र में शासक चतुर-चालाक व लोकप्रिय राजा के रूप में बर्ताव करता है। यहां इस मत के विरोधी कुछ अनहोनी घटनाओं का जिक्र कर सकते हैं जहां एक सामान्य व्यक्ति के शासक की कुर्सी तक पहुंचने के उदाहरण दिये जा सकते हैं। मगर उनके लिए जवाब होगा कि इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। राज व्यवस्था के दौरान भी कई राजपरिवारों के तख्तापलट हुए हैं जिसमें एक आम सैनिक या वीर को उच्च पद तक पहुंचते हुए देखा गया है। यूरोप में नेपोलियन का उदाहरण है तो हिंदुस्तान में चंद्रगुप्त की कहानी हरेक की जुबान पर है।

संक्षिप्त में कहें तो यह अवाम की मानसिकता ही है जो प्रदर्शित करती है कि उसे एक शासक चाहिए। फिर चाहे वो किसी भी रूप में आये। जिसमें राजाओं ने स्वयं को अधिक प्रमाणित किया है। अंग्रेज प्रजातंत्र के जनक माने जाते हैं मगर वे भी प्रतीकात्मक रूप से ही सही मगर राजवंश की प्रथा को समाप्त नहीं कर पाये, यही नहीं एक साधारण व्यक्तित्व वाले राजकुमार की शादी में वहां देश को अति उत्साही होते देखा गया। यह हमारी व्यवहारिक कमजोरी ही है। तभी प्रजातांत्रिक पार्टियों में भी एक व्यक्ति का नियंत्रण होने पर सब अनुशासन में रहते हैं। जबकि उन राजनीतिक पार्टियों में जहां बोलने की स्वतंत्रता है खुली छूट मिलने पर कार्यकर्ता अराजक होकर स्वयं का सत्यानाश करने के लिए तैयार हो जाते हैं। क्या प्रजातंत्र अवाम के मन-मस्तिष्क को संतुष्ट करने का भ्रम मात्र है? शासन में आमजन की भागीदारी पर संदेह किया जाना चाहिए? असल में प्रजातंत्र की सफलता तब मानी जायेगी जब हम राजतंत्र के उपरोक्त लक्षणों से पूरी तरह मुक्त हो जायेंगे।