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विकास की सफेदी

पिछले दिनों दूध की शुद्धता को लेकर मीडिया में अच्छी-खासी चर्चा हुई थी। यकीनन इसने कई घरों में सनसनी फैलायी होगी। बच्चे तो अमूमन दूध पीने से बचने के चक्कर में रहते हैं। उन्हें अब एक अच्छा बहाना मिल गया होगा और वे खुश हुए होंगे। लेकिन जबरन दूध पिलाने वाले मां-बाप को इस खबर से धक्का लगा होगा। ऐसे कई परिवार और व्यक्ति मिल जायेंगे जो दूध पीने को स्वस्थ जीवन का अभिन्न अंग मानते हैं एवं साथ ही इसे बड़े गर्व के साथ चार लोगों को बताने की सदा कोशिश में रहते हैं। दिन में कम से कम एक गिलास दूध पीने वाले कई मिल जायेंगे। उनकी इस दैनिक आदत पर अब क्या असर होगा? शोध का विषय होना चाहिए। बहरहाल, मैं दूध से बचता रहा हूं, लेकिन खोये की बनी मिठाइयां और दही मेरे प्रिय व्यंजन की सूची में ऊपर के पायदान पर आते हैं। उपरोक्त खबर के बाद यह सवाल मन में आना शुरू हो चुका है कि कहीं मैं दूध-दही की जगह जहर तो नहीं खा रहा।

बचपन को याद करता हूं तो दूध आम घरों में सीमित मात्रा में ही उपलब्ध हुआ करता था। साइकिल पर चलने वाले दूध वालों की समाज में अपनी विशिष्ट पहचान थी। दूध में पानी मिलाने की बात अमूमन की जाती थी। और यह दूध वाले के साथ नोकझोंक का एक सूत्र होता था। उत्तर भारत में विशेषकर पंजाब और आसपास के क्षेत्र में तो दूध-दही और पनीर का प्रचलन था मगर देश के अन्य हिस्सों में यह आम आदमी के रोजमर्रा के खाने की थाली में नहीं देखा जाता था। पिछले दो-तीन दशक में जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है, परिणामस्वरूप खेत-खलिहान सिकुड़े हैं तो साथ ही दूध के लिए गाय-भैंस के ऊपर भी दबाव बढ़ा होगा। लेकिन दूसरी तरफ दूध-दही और पनीर गांव-गांव, घर-घर में अब आम देखा जा सकता है। इस अंतर्विरोध को समझने की जगह हमने इसे विकास से जोड़ दिया। आलू-गोभी-बैंगन की सब्जी वाले क्षेत्रों की शादियों में भी अब पनीर परोसा जाने लगा। ये अब आधुनिक होने का पैमान बन चुका है। मीडिया के विज्ञापन और आधुनिकता की चाहत का इतना प्रभाव है कि मां के दूध के बाद सीधे दाल-रोटी खाने वाला परिवार भी अब बच्चे को दूध में तरह-तरह के डिब्बाबंद पाउडर मिलाकर पिलाने में गर्व महसूस करता है और इस तरह स्वयं को विकसित कहलाने की दौड़ में शामिल कर चुका है। इस नकल की अंधी दौड़ में हम इतने पागल हो चुके हैं कि हमें कुछ और दिखाई नहीं देता। हमने यह जानने-समझने की कोशिश ही नहीं की कि इतना दूध आ कहां से रहा है। दूध पर जम रही मोटी मलाई और सफेदी के पीछे के राज को हम समझ नहीं पाये और इसे जाने-अनजाने देश-समाज के विकास से जोड़कर देखते रहे। असल में, विकास शब्द हमारे जेहन में सुबह-शाम तोते की तरह रटा दिया गया है कि हमें कुछ और समझ ही नहीं आता। हजारों वर्षों में धीरे-धीरे पनपी संस्कृतियों को ऐसा अहसास कराया गया है कि मानों पिछले दो-तीन दशक में जो कुछ हुआ वैसा पहले कभी नहीं हुआ था। आधुनिक सोच ने बीस-पचीस साल पूर्व तक की सभ्यता के तमाम पैमानों को सिरे से नकार दिया और स्वयं को अति विकसित कहलाने का डंका पीट दिया। हरेक व्यक्ति में तथाकथित विकास के नाम पर इतना अहम्‌ भर दिया गया कि वह फूलकर अपने आप को दुनिया का सबसे होशियार व्यक्ति मानने लगा। उसे ज्ञान की ऐसी दवा पिलायी गई कि वो कुछ और सोच ही नहीं सकता।

क्या यही विकास है? उपरोक्त स्थिति से तो यही प्रतीत होता है कि बाजार ने मीडिया के सहयोग से अपने मक्कड़जाल को एक बेहतरीन शब्द से सुशोभित कर रखा है। जिसमें आदमी को फंसाना बड़ा आसान है। वैसे देखें तो पिछले दो-तीन दशकों में विकास के नाम पर हमने क्या-क्या पाया? हर दूसरे हाथ में मोबाइल, हर घर के अंदर पहुंचता कंप्यूटर-इंटरनेट और बाहर बरामदे में दो से चार पहिया वाहन, साथ ही हर परिवार में टीवी-फ्रिज, बड़े-बड़े मॉल आदि-आदि। और हां, मध्यम वर्ग ने अपने कपड़े चमकीले और भड़कीले जरूर कर लिये हैं। महिलाओं ने जहां श्रृंगार पर अपने नखरों को और हवा दी, वहीं पुरुषों ने भी इस क्षेत्र में दखल की है। घर-दुकान और कार्यालय ही नहीं स्कूल भी वातानुकूलित होने लगे। इन तमाम चीजों में एक मूल तथ्य समान रूप से उपस्थित है, ये सब शारीरिक सुख-सुविधाओं, जिसे भौतिक और उपभोग की वस्तु कह सकते हैं, से संबंधित हैं। आज स्कूली छात्र भी मोबाइल रखने लगा है। यूं तो इसका औचित्य सीधे-सीधे समझ नहीं आता? लेकिन सामान्य रूप से पूछने पर भी तमाम समाज आपके ऊपर चढ़ बैठेगा। जबकि यहां यह पूछा जाना चाहिए कि इससे आपको प्राप्त क्या हुआ? अर्थव्यवस्था के मायाजाल में न फंसे तो यह तो यकीन से कहा जा सकता है कि पहले भी बच्चे दूर-दूर पढ़ने जाया करते थे, बल्कि आज से कहीं अधिक दूर रहकर भी अपने परिवार से भावनात्मक रूप में जुड़े रहते थे। रिक्शेवाले और दैनिक मजदूरों के हाथ में मोबाइल देकर हमने विकास का ऐसा कौन-सा फायदा इस वर्ग तक पहुंचाया है? सिवाय इसके कि वह अपने सीमित आय का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा इस अनावश्यक सेवा में गंवाता है और एक वर्ग को और अधिक अमीर बनाने में सहयोग करता है। इसी तरह के प्रश्नों का सीधे-सीधे जवाब जब नहीं बनता तब पढ़ा-लिखा वर्ग भी विकास की परिभाषा के वही रटे-रटाये जवाब सुनाने लग पड़ता है। बिजली के उपकरणों पर हमारा जीवन पूरी तरह निर्भर कर दिया गया मगर इस बिजली का उत्पादन प्रकृति के साथ किस तरह खेलता है हम इससे अनभिज्ञ ही रहते हैं।

उपरोक्त तमाम विकास किस कीमत पर हुआ है? क्या अवाम की मूलभूत आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हुई है? अगर इसे ध्यान से देखें तो स्थिति और अधिक भयावह उपस्थित होती है। और कुछ हो न हो इसने समाज को दो हिस्सों में बांट दिया। विकास के नाम पर हुए फायदे के नशे में चूर वर्ग भी इसे ठीक से समझ नहीं पा रहा। असल में श्रृंगार-प्रसाधन के चक्कर में आंतरिक सौंदर्य कम हुआ है। वातानुकूलित वातावरण की चाह ने लोगों को दीवारों के भीतर कैद कर दिया। कृत्रिम हवा ने शारीरिक प्रतिरोधक क्षमता को कम करने के साथ-साथ लोगों की सोच को भी संकुचित किया है। घर के एक चूल्हे की जगह अब कई रसोई बन चुकी है और परिवार टूट चुके हैं। समाज में भौतिक सुख-सुविधा की अंधी दौड़ में हर इंसान पागल है। प्रतिस्पर्द्धा ने मानवीयता को बहुत पीछे छोड़ दिया है। शराब पीना अगर आधुनिकता की निशानी है तो हां हमने बहुत विकास किया है। अब हिन्दुस्तान के हर एक महानगर के हर दूसरे रेस्टोरेंट में लड़कों के साथ-साथ लड़कियां भी शराब के नशे में धुत्त सिगरेट का धुआं फेंकते हुए मिल सकती हैं। उस पर तुर्रा यह कि अगर आपने इस संदर्भ में कुछ भी लिखा या बोला तो आप नारी-विरोधी एवं पुराने खयालात के दकियानूस आदि-आदि घोषित किये जा सकते हैं। यही नहीं, आधुनिक विचारधाराओं के पुजारी आपको ऐसा बहुत कुछ कह सकते हैं जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। ये पुरुष और स्त्री दोनों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बराबर से है, कहने के बावजूद इसे नारी स्वतंत्रता से जोड़ दिया जायेगा। शिक्षा के क्षेत्र में विकास की बात करें तो हां हमने शिक्षित होने के प्रतिशत को तो कई गुणा बढ़ा लिया है लेकिन समझदारी का इंडेक्स बुरी तरीके से नीचे गिरवा लिया। शिक्षा अब व्यवसाय व पैसा कमाने का एक रास्ता बन चुका है। जहां मानवता, समाज, राष्ट्र अब गौण हो चुके हैं। शिक्षा जीवन के भौतिक स्तर को बढ़ाने में सहायक हो गई है जबकि मानसिकता स्वार्थी और व्यक्तिगत होती चली गयी है। अध्यात्म या दर्शन को छोड़ें, शिक्षा का मूल तथ्य ज्ञान भी नदारद है। इसकी जगह अब सूचना ने ले ली है। बच्चा-बच्चा इंटरनेट पर सोशल वर्किंग-साइट से जुड़ चुका है। वो कंप्यूटर पर ही तमाम तरह के खेल खेलने लगा है। अगर यही विकास का पैमाना है तो यकीनन बहुत कुछ हुआ है। अब बच्चा खुली हवा में मैदान में जाकर खेलता नहीं। उसके शरीर पर मिट्टी नहीं लगती। शाम को तैयार कर बच्चे को बाहर खेलने भेजना प्रचलन में नहीं रहा। खेलते-खेलते कपड़े गंदे हो जाना अब स्वीकार्य नहीं। इसीलिए आजकल हम अपने तमाम दाग आधुनिक डिटेरजेंट से पूरी तरह साफ कर देने के चक्कर में रहते हैं। हम यह भूल चुके हैं कि इसी मिट्टी में ऐसे कई तत्व हैं जो हमारे शरीर के लिए अति आवश्यक हैं। धूप की गर्मी व खुली हवा में सांस लेना अब हमारी विकास की परिभाषा में नहीं आता। अब तरह-तरह के डिब्बेबंद टॉनिक पिलाकर हमारे बल्लेबाज घर पर ही चौके-छक्के मारते दिखाये जाते हैं। ये किताबी-शेर हमारे जीवन को हवा बना दे रहे हैं। नदी में बहता स्वच्छ जल अब हमारे लिये एक आश्चर्य का विषय हो सकता है। विकास की धमा-चौकड़ी ने हमारे झरनों-तालाब-नदियों को कब प्रदूषित कर दिया इसकी हमें खबर भी नहीं। उलटे बोतल में बंद पानी हमारे आधुनिकता की नवीनतम पहचान बना दी गयी और हम पानी के लिए भी पैसे खर्च करने लगे। मिट्टी के बर्तन में रखे गये खाने का सौंधापन अब कहां? पिज्जा-बर्गर और महीनों पुराना डिब्बाबंद खाना विकास की नयी परिभाषा गढ़ रहे हैं। ऐसे में हमने कई सारी नयी मुश्किलों और परेशानियों व बीमारियों को भी जन्म दिया है। हां, विज्ञान के विकास से हमने अपने जीवन को लंबा खींच तो लिया लेकिन उसमें वो जीवन-रस कहां जो हर पल जीने के लिए लालायित रखे। अगर सौ साल का एकाकी जीवन ही विकास की परिभाषा है तो इस पर बहुत जल्दी कई सवाल खड़े होने लगेंगे जिसका जवाब आने वाली पीढ़ी के पास नहीं होगा।