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कोलावरी-डी

अमूमन लोकप्रियता का कोई विशेष कारण नहीं होता। हिट का कोई फिक्स्ड फार्मूला नहीं। अतः यह इस लोकोक्ति को चरितार्थ करता है कि ‘जब ऊपर वाला देता है तो छप्पर फाड़कर देता है’। यही नहीं, ठीक ही कहा गया है, ‘लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश नहीं हाथ।’ शायद इसीलिए अत्यधिक सफल लोगों को नजदीक से देखने पर उनमें आत्मविश्वास की कमी देखी जा सकती है और वे भविष्य को लेकर आमतौर पर आशंकित रहते हैं। सफलता यदि बिना किसी सार्थक प्रयास व विशिष्ट क्षमता व गुण के प्राप्त हो तो सामान्यतः इसे नियति के साथ जोड़कर देखा जाता है। असाधारण सफलता-असफलता की अनिश्चितता फिल्मी क्षेत्र में सबसे अधिक देखी जाती है। चिर-परिचित विभिन्न पैमानों के आधार पर सफल व लोकप्रिय होने की संभावना को सीधे-सीधे नकारा तो नहीं जा सकता, लेकिन कब क्या हिट हो जाये या पिट जाये, कहा भी नहीं जा सकता। बाजार के युग में मिट्टी भी सोने के भाव बिक जाती है, ऊपर से विज्ञापन की दुनिया ने इसकी संभावना को और बढ़ा दिया है। मगर कब इसकी अति उलटी पड़ जाये कहना मुश्किल है। बड़े-बड़े सुपरस्टार की बहुप्रचारित फिल्में औंधे-मुंह गिरते देर नहीं लगती। शायद इन्हीं सब कारणों से फिल्मी क्षेत्र के लोग फ्लॉप के नाम से बेहद डरे हुए, सहमे हुए, दुविधा व असमंजस की स्थिति के कारण पूजा-पाठ में लीन, ज्योतिषियों के चक्कर लगाते हुए सदैव भयभीत ही नहीं भ्रमित भी देखे जा सकते हैं। इन्हें अपनी क्षमताओं, गुणों और कला व प्रतिभा पर भी यकीन नहीं होता। और अगर कहीं देखा जाता भी है तो वो अति आत्मविश्वास से होता हुआ अहम्‌ तक पहुंच जाता है। और फिर ये चमचमाते सितारे ऊटपटांग हरकतें करते हुए देखे जा सकते हैं। जो फिर अंत में विफलता का कारण भी बनता है। लेकिन अब क्या किया जाये, कई बार सामान्य को भी असामान्य रूप में सफल होते हुए देखकर ही तो इनका दिमाग खराब होता है।

वर्तमान में कोलावरी-डी का अचानक इतनी लोकप्रियता हासिल करना हैरानी पैदा करता है। उपरोक्त व्याख्या का यह एक उदाहरण ही नहीं प्रमाण भी है। इसे इसी कड़ी में रखकर देखना चाहिए। सचमुच इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिस कारण यह गीत इतना लोकप्रिय हो जाये। इस गीत-संगीत व संबंधित फिल्म से जुड़े लोग लोकप्रिय सितारों के निकट संबंधी जरूर हैं, जो उन्हें एक तरह का प्लेटफार्म प्रदान करते हैं। मगर क्या यह इतनी अधिक लोकप्रियता बटोरने के लिए काफी है? शायद नहीं। यही नहीं आश्चर्य तो तब अधिक होता है जब इसका कोई भी पक्ष असाधारण नहीं दिखाई देता। जहां तक रही बात इसके बोल और शब्दों की तो संपूर्ण गीत टूटे-फूटे और जोड़तोड़ के वाक्यों से बनाया गया है। वो भी किसी एक भाषा से नहीं लिया गया। तमिल और अंग्रेजी भाषा का मिश्रण है यहां पर। जिसका सीधे-सीधे कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता। कम से कम विशिष्ट तो बिल्कुल नहीं। ऐसे में गाना सुनकर किसी भावना में बहना तो बहुत दूर की बात है। हां, बहुत हुआ तो अपने-अपने तरह के अर्थ निकाले जा सकते हैं। मगर फिर भी गहरे भावार्थ का कोई सवाल ही नहीं। यह दीगर बात है कि आज जीवन अर्थ व ठहराव नहीं सिर्फ गति व शोर चाहता और मांगता है। इतना ही नहीं, दक्षिण के चिर-परिचित व स्थापित गायक की आवाज भी यहां मधुर या कर्णप्रिय व आकर्षक नहीं प्रतीत होती। यह अति सामान्य ही है। बहरहाल, कोलावरी-डी के शब्दों पर जावेद अख्तर की टिप्पणी सबसे ज्यादा मायने रखती है जिन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से ही सही मगर इसकी एक तरह से आलोचना की। यहां संवेदनशील गीतकारों के दर्द को समझा जा सकता है। खासकर उनके जो शब्दों पर विशेष ध्यान देते हैं। फिलहाल इस बात को तो कोलावरी के गायक रचयिता धनुष ने भी स्वीकार किया है। उनके खुद के शब्दों में उन्होंने चंद मिनटों में ही आम टिंगलिश शब्दों को जोड़तोड़ कर एक गीत का रूप दिया था। और फिर मीडिया रिपोर्टिंग को सच माने तो रिकार्डिंग भी जल्द ही संपन्न हुई थी। वैसे वर्तमान काल में लंबे रियाज और सृजन प्रक्रिया में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले जज्बे की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। जहां ‘शीला की जवानी’ से ‘मुन्नी बदनाम’ तक हो जाती है और ‘छम्मक छल्लो’, ‘चिकनी चमेली’ बनकर रातोरात सुर्खियों में आ जाती हो, वहां रजनीगंधा के फूल को महकने का कौन इंतजार करे। जब जीवन के मूल्य अर्थहीन होकर सिर्फ अर्थशास्त्र केंद्रित हो जायें तो ऐसे में अकेले गीत-संगीत से अपेक्षा करना मूर्खता होगी। लेकिन फिर इस सत्य को भी कैसे झुठलाया जाये कि कविता और लोकगीतों के क्षेत्र में भारतीय कला का जीवन अति प्राचीन और गौरवपूर्ण रहा है जो आज भी हमें भाव-विभोर करता है। आनंदित करता है। भारतीय संगीत लंबे समय से आम जीवन में महत्वपूर्ण रोल अदा करता रहा है। इसने जीवन को कलात्मक और लयबद्ध किया है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि कोलावरी-डी का संगीत पक्ष भी बहुत विशिष्ट और मधुर नहीं। यह बेहद हल्का और आम है।

उपरोक्त संदर्भ में तसलीमा नसरीन की पंक्ति भी यहां पर उचित रूप में देखी जानी चाहिए। जिसका इशारा कहीं न कहीं हमारी पीढ़ी के खोखलेपन को दर्शाता है। इसे कुछ हद तक सच माना जा सकता है। मगर ऐसा पहले न हुआ होता तो बात कुछ और बनती। भारतीय गीत-संगीत के सदाबहार स्वर्णिम युग में भी कई अर्थहीन शोर करने वाले गानों को लोकप्रिय होते देखा गया है। और बेहद संवेदनशील और भावपूर्ण गीतों के सफल गायक किशोर कुमार ने इस तरह के कई फालतू गाने गाये। कई बार तो ऐसे गाने सालों-साल पैरोडी बनकर जन-जन की जुबान पर चढ़े रहे। सफलता के क्षेत्र में ऐसे हादसे सिर्फ हिंदी नहीं अन्य भाषाओं में भी बराबरी से देखे जा सकते हैं। असल में शांत समुद्र की गहराई के बावजूद सतह पर लहरे उठने के कई कारण होते हैं।

शायद यह हमारी मानसिक स्थिति का द्योतक भी है। हमारी वर्तमान सामाजिक अवस्था भी इसका एक कारक हो सकती है। जहां सब कुछ अस्त-व्यस्त होकर तेजी से बिखर रहा है। ऐसे में हम अर्थहीन उद्देश्यहीन होकर अल्लहड़ता में कुछ एक पल बिताना चाहते हैं। यह तनाव को कम करता है। स्वयं को हल्का करता है। जीवन में ताजगी लाता है। यहां कुछ नया होता है। अनुशासन से परे। हर तरह की मुश्किलों और जटिलता से दूर। सभी तरह के नियंत्रण से मुक्त। इस नयेपन की चाहत ही आदमी को सदा कुछ नया करने के लिए प्रेरित करती है। जिसकी खोज में इनसान ने क्या कुछ नहीं किया। उसे हर दिन हर क्षेत्र में कुछ नया चाहिए। घर में खाना खाते-खाते बोर हो जाना, और बाहर होटल में खाने जाना इसका प्रमाण है। यहां तक कि प्रेम में भी नयापन चाहिए। वैवाहिक जीवन में बासीपन और रोजमर्रा के रुटीन से बचने के लिए उपाय सुझाये जाते हैं। इसी तरह के कई और उदाहरण हो सकते हैं। ऐसा ही कुछ संगीत में भी है। जब छंद, लय और ताल उन्मुक्त होकर शब्दों से स्वतंत्र होते हुए खुली हवा में सांस लेते हैं तो कोलावरी-डी का जन्म होता है। यहां नौ रस की जगह मात्र जीवन-रस होता है। और यह कुछ सोचना-समझना नहीं चाहता। जहां शब्दार्थ नहीं, भावार्थ नहीं, सिर्फ एक ध्वनि होती है। अब इसे आनंद कहें या उन्माद या मस्ती? बहरहाल, यह आपको अहसास कराती है कि आप भिन्न हैं। एक तरह की विरक्ति। बंधन-मुक्त जीवन। अनंत आकाश में विचरण करने का अनुभव।