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कल्पनाशीलता की सीमाएं

हमारे देखने और समझने की सीमायें सीमित हैं। इसीलिए ब्रह्मांड का विस्तार हमारे लिये अपरिभाषित है। बहुत हद तक यही कारण भी है कि हमने अनंत शब्द को जन्म दिया और अपने ढंग से परिभाषित करके इसे भरपूर प्रयोग में लाने लगे। इसके ठीक उलट, सूक्ष्म दिशा की ओर जायें तो कुछ समय पूर्व तक अणु-परमाणु सूक्ष्मतम कण माने जाते थे। लेकिन फिर कालांतर में अनुसंधानों द्वारा आगे जाकर इलेक्ट्रान, न्यूट्रान और प्रोटोन पर हमने अपनी समझ को विस्तार तो दिया मगर फिर पूर्णविराम भी लगा दिया। यह अतिसूक्ष्म कण हमारे लिये आवश्यक मूल अवयव के रूप में परिभाषित हो गये। मगर अब तक सृष्टि की विस्मित करने वाली संरचनाएं को देखने और समझने के पश्चात दावे से कहने पर मुझे कोई संकोच नहीं कि इसके आगे भी कुछ होगा जो और अधिक सूक्ष्म होगा। या तो वो हमारी निगाह से अब तक बचा हुआ है या फिर हमारी समझ व दृष्टि से परे है। यह सूक्ष्मतम होने की प्रक्रिया यूं तो अंत में शून्य पर जाकर समाप्त अवश्य होती है, जहां कुछ भी नहीं, मगर यह भी कहीं न कहीं अनंत की ओर ही इशारा करती है। पुराने ग्रंथों का अध्ययन करें तो शून्य का अस्तित्वहीनता से होते हुए अनंत से संबंध जोड़ भी दिया गया। शून्य का शब्दार्थ भावार्थ पर पहुंचने पर अनंत को ही प्रदर्शित करने लग पड़ता है। हम गाहे-बगाहे अंतरिक्ष के अनंत में भी चारों ओर शून्य को ही देखते हैं। बहरहाल, एक तरफ विज्ञान ने हमें बहुत सारी चीजों व घटनाओं का भौतिकी आकलन करके, व्यावहारिक समझ को दृष्टि देते हुए, उसे शब्दों में परिभाषित किया और साथ ही प्रकृति को उपभोग में लाने की सुविधा भी दी। मगर दूसरी ओर लगता है कि हमारी कल्पनाशीलता और सृजनशीलता पर रोक भी लगाई है। कुछ समय पूर्व तक दर्शनशास्त्र अति महत्वपूर्ण विषय हुआ करता था और ज्ञान, अध्ययन व शास्त्रों के मूल में था। फिर चाहे वो राजनीति शास्त्र हो, समाजशास्त्र या फिर विज्ञान। दार्शनिकता व कल्पनाओं का पीछा करते हुए ही विज्ञान ने कई आविष्कार भी किये। आदिकाल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी के तमाम वैज्ञानिक व खोजकर्ता, दार्शनिक और विचारक भी रहे हैं। मगर आधुनिक युग में ऐसा प्रतीत होता है कि विज्ञान ने विद्या की सभी धाराओं को अपने नियंत्रण में ले लिया। तभी तो सोचने समझने की शक्ति उपभोग करने में डूब चुकी है और हम उपभोक्ता संस्कृति में यंत्रवत्‌ जी रहे हैं। शायद यही कारण है जो किसी बड़ी खोज या विज्ञान में क्रांतिकारी घटनाओं पर पूर्णविराम-सा लग गया है।

पिछले दिनों कार्टून नेटवर्क पर विज्ञान फंतासी की एक फिल्म आ रही थी। जिसमें भविष्य की कल्पनाएं की गई थीं। कार्टून फिल्म का बनाना एक जटिल प्रक्रिया है और पश्चिम ने इसमें महारात हासिल कर रखी है। यह देखने में अति रोचक और तभी लोकप्रिय भी है। उपरोक्त फिल्म में भी अन्य कार्टून की तरह आधुनिक विमान, अंतरिक्ष यान और अजीबो-गरीब शारीरिक संरचना वाले (इन्हें हाइब्रिड मानव कहा जा सकता है) कई चरित्र थे। कई पात्र दो शक्तिशाली पशु-पक्षियों के मिश्रण से मिलाकर बनाये गये प्रतीत हो रहे थे तो कई हमारे कॉमिक्स के पुराने नायक फैंटम और बेताल की तरह दिखाई दे रहे थे। मगर अधिकांश नारी चरित्र अति सुंदर व नये-नये पोशाकों में दिखाई दे रही थीं। अंतरिक्ष में आवागमन तेज गति से होते हुए दिखाया जा रहा था। मगर नये-नये शस्त्र व अस्त्र के नाम पर वही बंदूक, गोले, मिसाइल व लेजर का सिद्धांत उपयोग में लाया जा रहा था। यूं देखा जाए तो इन सबमें कोई बहुत अधिक नयापन नहीं था, क्योंकि हमारे अति प्राचीन धर्मग्रंथों में इस तरह के चरित्र ही नहीं यान व अस्त्रों का भी विस्तृत वर्णन आ चुका है। तो क्या हम विज्ञान के इतने आगे बढ़ने के पश्चात भी कुछ नया नहीं सोच पाये? बहरहाल, यहां तक तो फिर भी सब ठीक ही था मगर एक बिंदु पर आकर तो विचार एकदम रुक से गये थे। कहानी के केंद्र में भी वही पुरानी घिसी-पिटी बातें दिखाई जा रही थीं। मसलन, आदमी और औरत का प्रेम, इन संबंधों के बीच किसी नये चरित्र के आगमन पर त्रिकोण प्रेम-संबंध का होना, और फिर वही तथाकथित सदियों पुराना भावनात्मक राग द्वेष। इसके अतिरिक्त शक्तिशाली चरित्र का अपने अधिकार क्षेत्र का अधिक से अधिक विस्तार एवं दूसरों को नियंत्रण में लेने का प्रयास। कहानी में जान व गति डालने की कोशिश की जा रही थी। नायक-खलनायक मूलतः अपने चिर-परिचित पारंपरिक अंदाज में ही थे। कहानी में नायक के हाथों कई खलनायकों की पिटाई दिखाई जा रही थी। संक्षिप्त में कहें तो अंत में हीरो की विजय और विलेन की पराजय। नायिका का नायक के प्रति अटूट-प्रेम में कोई नयापन नहीं था, साथ ही वही घिसा-पिटा पुत्र-मोह व अवैध संतान की समस्याएं आदि-आदि कहानी को उबाऊ बना रहे थे। सभी पक्ष को निभाने के लिए संबंिधत व संदर्भित पात्र कहानी में गढ़े हुए प्रतीत हो रहे थे। इस दृष्टि में देखते ही कार्टून कुछ-कुछ हिन्दी व्यावसायिक फिल्मों की तरह लगने लगी थी। जहां अमिताभ बच्चन व धर्मेंद्र से लेकर सीकची पहलवान की तरह दिखने वाले कई आधुनिक युवा नायक भी खलनायकों को जमकर मारते-पीटते दिखाये जाते हैं। दूसरी तरफ मोगेम्बो और अजीबोगरीब दिखने वाले हमारे खलनायक शारीरिक और सैनिक शक्ति द्वारा समाज और देश की सीमाओं को अपने नियंत्रण में करना चाह रहे हैं। ये अमूमन जिस तरह हमारी फिल्मों में गैर-कानूनी कार्य करते हुए दिखाये जाते हैं, उसी तरह कार्टून फिल्म की कहानी में भी अपना रंग दिखा रहे थे। हां, कहीं-कहीं इसमें राजेश खन्ना की मोहब्बत का रोमांटिक पुट भी शामिल दिखाई दिया तो कहीं गुरुदत्त व दिलीप कुमार की दर्दभरी ट्रैजेडी। इस विश्लेषण ने अन्य अंग्रेजी फिल्मों पर भी सोचने व गौर करने के लिए विवश किया था। खासकर वो फिल्में जिन्होंने हॉलीवुड में तहलका मचाया हुआ है। फिर चाहे वो ‘स्पाइडरमैन’ और ‘अवतार’ हो या फिर ‘द डे ऑफ्टर टुमारो’ की तरह विज्ञान फंतासी की फिल्में। सभी में नायक-नायिका के प्रेम और खलनायक की नापाक महत्वाकांक्षाएं ही मूल में दिखाई दीं। यहीं क्यूं, ‘स्टार वार्स’ में भी हम चाहें जितने भी अंतरिक्ष में आगे चले जाएं, वही परिवार व वंश की बातें सुनाई व दिखाई दीं। गाहे-बगाहे फिल्मों में दिखाये जाने वाले दूसरे ग्रह के लोगों के निवासियों की चर्चा करें तो उनके व्यक्तित्व व स्वभाव के प्रदर्शन में भी मानवीय भावना का प्रभाव ही अधिक दिखाई देता है।

तो क्या इसका यह निष्कर्ष निकाला जाये कि हमारी कल्पनाशीलता यहीं पर आकर सीमित हो जाती है? क्या हम इसके आगे सोच भी नहीं सकते? या इसके आगे समझ नहीं पाते? माना कि भावनाएं मनुष्य के लिए प्रमुख ही नहीं मानवीय जीवन का मूल अवयव भी हैं। उसके बिना फिल्म और साहित्य की रचना संभव नहीं। लेकिन यह इस बात का भी तो द्योतक है कि इसके आगे हम कल्पना नहीं कर पाते। यकीनन ब्रह्मांड में ऐसा तो कुछ होगा जो इन भावनाओं की सीमाओं के आगे होगा, अतिरिक्त होगा, परे होगा।

यह इस बात को परिभाषित करता है, सीधे-सीधे कहा जा सकता है कि हमारी कल्पनाओं की भी सीमा है। हम उतनी ही कल्पना कर सकते हैं या कर पाते हैं, जिसे कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में हमने देखा-सुना है। हमारे सपनों में भी वही आकृतियां आती हैं जिसे किसी न किसी संदर्भ में हमने अपने आसपास कभी कहीं देखा होता है। वही कहानियां प्रकट होती हैं जिससे हम रूबरू हो चुके होते हैं। हां, इन तमाम पुराने अनुभवों के आपस में मिश्रित हो जाने से, जोड़तोड़ से, एक नये किस्म की कहानी और चरित्र का निर्माण तो हो सकता है, मगर उसके आगे कुछ नहीं। सच तो यह है कि हम वहीं तक, उसी सीमा तक कल्पनाओं में पहुंच पाते है, जिसे हमने पहले देख रखा है। कहा भी जाता है और सत्य भी है कि कल्पनाओं का वास्तविकता से कहीं न कहीं संबंध होता है।

शायद तभी, न्यूटन ने पेड़ से फल गिरता देखकर गुरुत्वाकर्षण के नियम बनाये थे। कोलम्बस ने इंडिया के नये रास्ते की तलाश में अमेरिका की खोज कर दी थी। गैलेलियो ने पृथ्वी की जगह सूर्य को केंद्र में प्रामाणित कर दिया था। आज हम उस दौर से आगे बढ़ चुके हैं। उसे अनुसंधानों व आविष्कारों का काल कहा जा सकता है। लेकिन आज स्थिति भिन्न है। अब अगर नयी खोज करनी है तो हमें नयी दृष्टि चाहिए, नई सोच चाहिए, नई कल्पना चाहिए। अंतरिक्ष में भेजे हुए हमारे यान इसमें काफी हद तक हमारी मदद कर सकते हैं। हम पृथ्वी पर भी ऐसे कुछ नये लैंस का उत्पादन करना चाहेंगे जो हमें एक नयी तरह की निगाह दे सके। और हम घटित होने वाली अदृश्य घटनाओं को भी देख सकें। लंबाई-चौड़ाई-ऊंचाई व समय के पैमानों के बाहर भी हमें झांकना होगा। शायद तभी हमारी कल्पनाओं का विस्तार होगा। यकीनन यह अत्यधिक रोचक होगा। बढ़ा अटपटा लगता है, बंधा हुआ महसूस होता है और बेचैनी होती है, जब यह आभास होने लगता है कि हमारी कल्पनाओं से भी परे कोई दुनिया हो सकती है, जो हमारे आसपास हमारे साथ-साथ विद्यमान तो है मगर हम उसे देख नहीं सकते। चूंकि देख नहीं सकते इसलिए समझ नहीं सकते। हमें यह मान लेना होगा कि सृष्टिकर्ता ने बड़ी चतुराई से हमारी कल्पनाशीलता को भी सीमित कर रखा है। अगर हमें भविष्य में अपने विज्ञान को नये पंख देने हैं, नये आयाम खोलने हैं, तो हमें अपने दर्शन को एक बार फिर महत्वपूर्ण बनाना होगा। और दर्शनशास्त्र को केंद्र में लाना होगा।