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अर्थव्यवस्था का मकड़जाल

अर्थ एवं न्याय शास्त्र में पढ़ाये जाने वाले विभिन्न सिद्धांतों को हम में से कइयों ने पढ़ा होगा। कितना इन्हें सही-सही समझ पाते हैं? एक प्रश्न हो सकता है। कम से कम मुझे इस बात को स्वीकारने में कोई शर्म नहीं कि दोनों क्षेत्र में भाषा बेहद क्लिष्ट है और इसे पूर्णतः समझना किसी बुद्धिजीवी के लिए भी आसान नहीं। इनसे संबंधित शिक्षा भी अत्यंत शुष्क, बोझिल और नीरस मानी जाती है। व्यावहारिक क्षेत्र में भी इनकी व्याख्या/वक्तव्य/लेख भारी-भारी शब्दों से लैस होकर इतने लंबे-लंबे वाक्यों में लिखे जाते हैं कि सामान्य अर्थ को भी समझ पाना कई बार नामुमकिन हो जाता है। जबकि इन दोनों विषयों का संबंध आम जीवन से है। अजीब विडंबना है। मुजरिम भी कई बार अपने गुनाह पर होने वाली वकीलों के बीच की जिरह में भारी-भरकम शब्दावली और पेचिदा वाक्यों से उलझकर घबरा जाता होगा। आपराधिक दुनिया के सीमित होने के कारण एक बार कानून के क्षेत्र को छोड़ भी दें मगर अर्थशास्त्र रोजमर्रा के जीवन से सीधे जुड़ा मामला है। यही कारण है जो अर्थव्यवस्था ने चाहे जितनी प्रगति डिग्री, थ्यूरी और प्रबंधन के नाम पर कर रखी हो, आम आदमी की आर्थिक समझ दैनिक जीवन के स्तर से ही निर्धारित होती है। तभी तो सवाल किया जाना चाहिए कि ऐसी व्यवस्था का क्या काम कि आज तक हम भुखमरी की समस्या का हल नहीं निकाल पाये? आखिरकार नागरिकों का एक वर्ग भूखे पेट सोने को क्यों विवश हैं? क्या कारण है जो नयी-नयी क्लिष्ट विचारधाराओं द्वारा पोषित आधुनिक समाज में असमानता की बीमारी कम होने की बजाय बढ़ती चली जा रही है? ऐसे गूढ़ शास्त्र का क्या फायदा जो अपने मूल उद्देश्य में ही असफल हो?

प्रकृति में प्रत्येक जीवित प्राणी के जिंदा रहने के लिए जरूरी मूलभूत आवश्यकताएं पृथ्वी पर ही उपलब्ध हैं। यह प्राकृतिक संतुलन है। दावे से तो नहीं कहा जा सकता लेकिन मनुष्य के विकासक्रम प्रारंभ होने के पूर्व तक प्राणी मुक्त, स्वतंत्र और कम से कम भूखा नहीं रहता होगा। कमजोर, बीमार व बूढ़े भी अपनी सामर्थ्य व जरूरत के हिसाब से प्रकृति से अपना हिस्सा ले लिया करते होंगे। विकास की कहानी के साथ-साथ किसी एक के द्वारा दूसरों के हक को भी अपने पास अधिकारपूर्वक रख लेना, और इस तरह से दूसरे को गुलाम बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई होगी। सुरक्षा के नाम पर समाज, व्यवस्था के नाम पर शासन, ऐसे कई शब्दों के द्वारा धीरे-धीरे नये सिद्धांत गढ़े गए होंगे। चतुर-चालाक बुद्धिज्ञान ने इसमें अहम भूमिका निभाई होगी। दूसरी ओर कमजोर व असहाय जन ने मजबूत नेतृत्व पर विश्वास किया होगा। मगर शक्तिशाली ने इसका फायदा उठाया होगा। भावनाओं, विश्वास, धर्म और संस्कृति के नाम पर। शासन व्यवस्था क्या है? अपने ही लोगों पर अपने ही द्वारा शासन करने का एक सामाजिक मगर अप्राकृतिक अधिकार। कभी-कभी यह बड़ा विस्मयकारी लगता है। मनुष्य स्वयं को श्रेष्ठ योनि प्रमाणित करने के लिए क्या-क्या तर्क नहीं देता, लेकिन क्या यह हास्यास्पद नहीं कि उसी को, उसके अपने ही लोगों के द्वारा नियंत्रित किया जाता है। शोषण किया जाता है, कभी शासन व्यवस्था के नाम पर, धर्म की सहायता से तो कभी पूंजी और शक्ति के बल पर। और बन जाता है दो वर्ग, राजा व प्रजा, शासक व शासित। कुछ एक धनी और अन्य अभावग्रस्त। अपने ही बनाये नियमों की सहायता से एक मनुष्य बड़े-बड़े भूखंडों का मालिक ही नहीं, राज्य और देश का कर्णधार तक बन बैठता है। नदियों, पहाड़, खनिज, अन्न भंडार का स्वामी तक बन जाता है। दूसरी ओर वही व्यवस्था उसी जमीन पर रहने वाले आदमी को उसी मिट्टी से पैदा हो रहे फल-फूल-अनाज से लेकर पानी का सेवन तक नहीं करने देती। और वो अंततः व्यवस्था का गुलाम बनकर रह जाता है। इस तरह जन्म होता है वंचित, गरीब, असहाय और कमजोर वर्ग का।

यह कैसी व्यवस्थाएं हैं? तंत्र है? किसके लिए शास्त्र लिखे गए? चिंतकों ने चिंतन दिया, विचारधारा बनी, स्कूल-कॉलेज-विश्वविद्यालय खोले गए, किसलिए? क्या सिर्फ अप्रत्यक्ष रूप से यह बताने के लिए कि अवाम पर किस तरह से शासन होगा? किस तरह से आर्थिक व्यवस्थाओं द्वारा उन्हें नियंत्रित किया जाएगा? अर्थात सीधे शब्दों में ये सारी व्यवस्थाएं, नियम, ज्ञान, तंत्र मानवजाति को उसके मूल पैदाइशी अधिकार से विमुख करते हैं। है न कमाल की बात!!

आम आदमी की प्राकृतिक आवश्यकता हवा, पानी और भोजन, पर किसी एक या कुछ सीमित लोगों का अधिकार कैसे हो सकता है? व्यवस्थाएं, तंत्र, शास्त्र चाहे जो भी अपने पक्ष में कहें, मगर अगर उनका अंतिम परिणाम यही है, जो दिखाई दे रहा है, तो कहा जाना चाहिए हमारी व्यवस्था में कहीं बहुत बड़ी कमी है। इतिहास के प्रारंभिक काल से ही, सीमित लोगों ने प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर एकाधिकार किया और उसी को भोजन दिया जो उन्हें और उनकी व्यवस्था को मजबूत करने के लिए सहयोग प्रदान करते हैं। इस व्यवस्था का विरोध भी हुआ। जो अधिक ताकतवर थे उन्होंने भी सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ता सुख का रसास्वादन किया। जब तब वो सत्ता के भागीदारी नहीं हो जाते, तब तक वो शासक द्वारा विद्रोही कहे जा सकते हैं और उन्हें शासन में बैठे लोगों द्वारा कुचला भी जा सकता है। यहां विद्रोह की संपूर्ण व अंतिम परिभाषा को भाषित नहीं किया जा रहा। कहने का तात्पर्य है कि भूख के लिए, अपने मूल अधिकार के लिए, जब भी किसी ने विरोध प्रकट किया, उसे शासन के द्वारा प्रताड़ित किया गया। वरना भूखा तो आम आदमी होता है, वो गरीब हो सकता है, नादान हो सकता है, बेवकूफ हो सकता, नासमझ हो सकता है। उसमें विरोध का सामर्थ्य कहां? वो तो अमूमन अपनी शारीरिक और मानसिक कमजोरियों का भुगतान करता है, भूखा रहकर। सत्य है, वो या तो इस व्यवस्था को स्वीकार करे, उसके जैसा बने, या फिर मरने के लिए तैयार रहे।

उपरोक्त भीड़ के विरोध को नियमित व नियंत्रित करने के लिए, तरह-तरह के समय-समय पर उपाय खोजे जाते रहे। और उन्हें अर्थव्यवस्था से संबंधित अलंकारिक नाम दिये गये। विकास के नाम पर महिमामंडित किया गया। लेकिन क्या यह फलदायी हुआ? लगता तो नहीं है। चारों ओर फैली गरीबी व असमानता से मुंह नहीं चुराया जा सकता। हां, मगर विश्लेषण तो किया ही जा सकता है। एक छोटा-सा उदाहरण लेंं। पिछले कुछ वर्षों में अचानक उपभोक्ता सेवाओं का विस्तार हुआ है। लोग इसे समाज में होने वाले विकास से जोड़कर देखते हैं। कई एक सुविधायें हैं, आधुनिक समाज जिसका भोग कर रहा है। ध्यान से देखें तो प्राकृतिक संपदा व मानवीय श्रम के मिश्रण से इसका निर्माण होता है। ये सेवाएं बाजार में उपभोक्ताओं को बेची जाती हैं। इनको चलाने के लिए विभिन्न कंपनियां बाजार में उपस्थित हुईं। उत्पादित सेवा एवं माल बेचा गया। और इस तरह व्यापार क्षेत्र का विस्तार हुआ। इस पूरे चक्र में कुछ लोगों ने अलग-अलग बिंदु पर अपने-अपने श्रम का योगदान दिया। मालिकों ने प्रकृति से खनिज का दोहन किया और मानवीय श्रम के बदले अधीनस्थ को पैसा दिया। अंत में उपभोक्ता को जो सेवा दी गयी उनसे पैसा लिया गया। कमाये गये धन से अन्य उपभोग के सामान का क्रय एक मिनट के लिए अनदेखा कर दें तो तमाम कार्य करने वाले लोग इसी पैसे को लेकर पेट के लिए भोजन-अनाज खरीदने बाजार में गए होंगे, जो कि प्रकृति के द्वारा मुफ्त में उपलब्ध है, मगर आज उस पर किसी और का कब्जा है। अगर वो किसान है तो श्रम के लेनदेन का हिसाब कुछ हद तक समझ आता है। लेकिन जमींदार या व्यापारी के आते ही संदर्भ भिन्न हो जाता है। जमीन और खनिज का दोहन करने वाले इन स्वामियों से हमने अपने श्रम व सेवा के बदले में जरूरी अनाज प्राप्त किया, जबकि मालिकों ने पैसे का संचयन किया और अपनी क्रय-शक्ति बढ़ाई। इस पूरे घटनाक्रम में जिसने उनके स्वामित्व को स्वीकार कर उनके इस चक्र में भाग लिया उसे धन-धान्य मिला। वरना भूखा रह गया। इस चक्र के पूरा होते-होते स्वामित्व की शक्ति तो बढ़नी ही थी। क्योंकि उसने ऐसी व्यवस्थाएं कर रखी हैं। यहां सारा झगड़ा इसी स्वामित्व का है। सवाल उठता है कि यह चक्र अगर नहीं होता, जिसे हमने उपभोक्ता-क्रांति और विकासक्रम का नाम दे रखा है, तब भी इस चक्र में बैठे हुए लोग उसी अनाज का उपभोग कर रहे होते, जो वो पैदा करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से कहीं भी जिम्मेदार नहीं। अगर वो सब के सब बेरोजगार भी होते, कोई भी कार्य न कर रहे होते, तो भी उनके हिस्से का अनाज, जो किसी ओर के स्वामित्व में है, उन्हें मिल सकता था। यह जरूर होता जो उपभोग की वस्तु हमने पैदा कर रखी है, वो न होती। लेकिन अगर यह न होता तो शायद हम बेवजह बहुत सारा बेशकीमती खनिज और न जाने कितनी बिजली का उपभोग करने से बच जाते। जो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में हमारे ही मूलभूत आवश्यकताओं पानी, शुद्ध हवा व अनाज को कम करने में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं।

इसी तरह के अनगिनत चक्र ऑटोमोबाइल, कंप्यूटर, संचार व शस्त्र आदि के हमने बना रखे हैं। इन्हें श्रम का चक्र भी कहा जा सकता है। जो जाने-अनजाने ही किसी एक व्यक्ति या छोटे से समूह को स्वामित्व प्रदान कर देते हैं। कुछ लोग अमीर, ताकतवर व शासक बन जाते हैं। माना कि इन्होंने अपने चक्र में आने वाले अन्य सहयोगियों की भी क्रय-शक्ति बढ़ा दी। सीधे शब्दों में, कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि इन्होंने इन्हें रोजगार दिया। ठीक है, लेकिन इससे समाज में एक नये तरह का असंतुलन बन गया। इस नये वर्ग ने निम्नवर्ग को और अधिक, तुलनात्मक रूप से नीचे धकेल दिया। ये मध्यवर्ग उच्चवर्ग को इन गरीब वर्ग से दूर और सुरक्षित भी करता है, बदले में उनकी तरह से कुछ भौतिक सुख लूट लेता है। लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत है कि वो श्रम को खेती से दूर कर रहा है। उधर, शहरों की ओर आमजन को आकर्षित करके एक बड़े वर्ग को, जोकि गरीब, अभावग्रस्त, कमजोर है, फैला रहा है। रोजगार के नाम पर हम कितने भी श्रम के कृत्रिम नये चक्र बना लें, सच तो यह है कि कृषि पर बोझ तो बढ़ ही रहा है। सवाल पुनः उठता है कि यह कैसी अर्थव्यवस्था है? जो सिर्फ और सिर्फ शब्दों से खेलती है और एक ऐसी संरचना पैदा कर रही है जहां अमीर गरीबों पर शासन करने के लिए स्वतंत्र और भूख पैदा करने में सफल हैं।