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हर युग में राक्षस होंगे

विश्वभर में बिखरी तमाम प्राचीनतम सभ्यताओं के तकरीबन हर महान ग्रंथ में देवताओं के साथ-साथ राक्षसों का भी जिक्र आता रहा है। हर युग में राक्षस और देवता परस्पर संघर्ष करते हुए देखे जा सकते हैं। ऐसा भी नहीं कि युद्ध में हर बार देवता ही विजयी होते थे। कई बार राक्षसों ने भी राज किया और इतिहास उनके शासन का भी साक्षी रहा है। यह दीगर बात है कि पौराणिक कथाओं की अंतिम लड़ाई में देवताओं को ही अमूमन विजयी होता दिखाया गया है। यह कुछ-कुछ फिल्मों की तरह ही लगता है। जहां नायक के साथ खलनायक अवश्य होता है। फिर चाहे वह मूक फिल्म का युग हो या अति आधुनिक कंप्यूटर एनिमेशन की पिक्चर का जमाना। खलनायक का अहम रोल हर फिल्म में सदा की तरह बरकरार है। बस इसके नाम व रूप बदलते रहते हैं। हां, भौतिक विकास व विज्ञान की उन्नति के कारण इनके काम करने का ढंग जरूर बदल जाता है। खलनायक न हो तो फिल्मों में रस ही नहीं आता। यही नहीं नायक का आभामंडल कमजोर पड़ सकता है। जितना अधिक पापी, दुष्ट, बदमाश व अवगुण वाला खलनायक होगा, नायक की छवि उतनी ही उभरकर आयेगी। अर्थात हीरो की महानता, विलेन के निम्नतर व निकृष्ट होने पर भी निर्भर करती है। ये पौराणिक/ऐतिहासिक कथायें और फिल्म पाठक को नायक से जोड़ती हैं और सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करती हैं। साथ ही जनमानस को भावनात्मक व मानसिक रूप से सुदृढ़ करती हैं। राक्षस का अंत न हो तो कथा का उद्देश्य ही समाप्त हो जाएगा।

देवताओं-राक्षस एवं हीरो-विलेन की एकसाथ उपस्थिति कुछ-कुछ अंधेरे और उजाले के रहस्यवाद का सरलीकरण लगती है। अंधेरों के बिना उजाले का महत्व नहीं। अर्थात उजाला है तो अंधेरा भी होगा। उपरोक्त तथ्य को आगे बढ़ाएं तो सुख और दुःख जीवन का सत्य है। यह आमजन ही नहीं, राजाओं के साथ थी जुड़ा रहा। गरीब-अमीर हर देश, हर काल में पाये जाते रहे हैं। इनके पैमाने और संख्या अलग-अलग हो सकती हैं। प्रेम और धोखा कोई नयी बात नहीं। राज नृत्यकियों और स्वर्ग की परियों ने भी धोखा खाया और समय-समय पर धोखा दिया। और यही नहीं, सतयुग के राज परिवारों में भी षड्यंत्र की योजनाएं बनती रही हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अच्छे और बुरे दोनों का अस्तित्व सदा से रहा है और रहेगा। धार्मिक लोग मिलेंगे तो अधर्मी और अयोग्य की भी कमी नहीं। शांत, समझदार, सहिष्णु जन आज भी हैं तो उद्दंड, अधीर, नासमझ हर जगह पाये जाते रहे हैं। गुणों के साथ-साथ क्रोध, ईर्ष्या, जलन व अन्य रसों को हर समय हर वर्ग में देखा जा सकता है। हर किस्म के लोग, हर तरह की भावना, हर तरह के विचार, हर तरह की आत्माएं, हर तरह के रस के साथ हर युग में पाये जाते रहे हैं और पाये जाते रहेंगे। इस परम सत्य को हमें स्वीकार करना चाहिए। और जिस तरह से सुख में हम सुखी होते हैं, दुःख का भी सामना करना आना चाहिए।

ये सब जीवन के अवयव भी कहे जा सकते हैं। एक जरूरी तत्व। ये खाने में नमक-मिर्च मसाले की तरह हैं। सामान्य भाषा में कहें तो इससे जीवन में स्वाद उत्पन्न होता है। खलनायक को जब नायक पीटता है तो जीत की खुशी होती है। वहीं जब खलनायक नायक पर भारी पड़ता है तो दुःख होता है और क्रोध भी आता है। यहां देखने व समझने वाली एक विशिष्ट बात होती है कि आप किसके पक्ष में खड़े हैं। राक्षसों के चाहने वालों की संख्या भी कम नहीं और वे उनके लिए नायक ही कहलाये जाएंगे। इसी तरह से कुछ पाने की इच्छा, सांसारिक महत्वाकांक्षा, मायावी चाहत, विपरीत लिंग के आकर्षण आदि को चाहे कितना भी अनावश्यक, व्यर्थ व अधार्मिक परिभाषित कर दिया जाए, मगर हम इनसे दूर नहीं हो सकते। वैसे भी जरा सोचें इन सबके बिना जीवन कितना नीरस हो जाएगा। सभी आमजन साधु प्रवृत्ति के हो जाएं, ध्यान में लीन रहने लगे, मरने से पहले ही मोक्ष को प्राप्त कर लें, तो क्या यह सृष्टि चल पाएगी? नहीं। असल में बात यहां इन प्रवृत्तियों के अति के रोकने की होनी चाहिए। इन्हें नियंत्रण में रखना सभी के लिए जरूरी हो जाता है। इसके लिए न केवल बाहरी राक्षस से संघर्ष करना पड़ता है बल्कि स्वयं के अंदर बैठे शैतान से भी द्वंद्व हो सकता है। यही उतार-चढ़ाव, कुछ करने की इच्छा, जीने की लगन को आगे बढ़ाती है। बदबू से परेशान होकर ही खुशबू का महत्व बढ़ जाता है। रात से घबराकर ही दिन का इंतजार रहता है। नरक के कष्ट के बिना स्वर्गलोक की कल्पना व्यर्थ है। कांटें न हो तो फूलों के स्पर्श की चाहत का मजा ही क्या रह जायेगा।

इसका मतलब यह कदापि नहीं कि बुरे को स्वीकार कर चुपचाप बैठ जाना चाहिए। यह तो हताशा की निशानी होगी। यूं भी स्वीकारोक्ति कमजोरी का सबब नहीं होती। यह इस बात को प्रमाणित नहीं करता कि हमने उसके सामने समर्पण कर दिया है। हमने तो सिर्फ उसके अस्तित्व को स्वीकार किया है, बस। उलटे उपरोक्त तथ्य व सत्य, अच्छों को बुरे के साथ निरंतर संघर्षरत रहने के लिए तैयार करते हैं। जीवन इसी का नाम है। जिस तरह हम दुःख से दुखी होकर सुख प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं, अंधेरों से घबराकर उजाले की तलाश में निकल पड़ते हैं। अपने आसपास बिखरे राक्षसों से भी हमें इसी तरह लड़ना होगा। बुराइयों पर विजय प्राप्त करने की प्रक्रिया में ही जीवन है। अन्यथा जिंदगी मौत से बदतर कहलायेगी। नकारात्मक चीजों को स्वीकार कर उसे बढ़ने का मौका देना, जीवन की सार्थकता को नष्ट करता है। प्रयास तो इस बात का होना चाहिए कि पूरी तैयारी के साथ विरोध कर बुराई को समाप्त किया जाये। यह स्वयं के अस्तित्व के लिए भी जरूरी है। जो जीतेगा वो ही सुरक्षित रहेगा। इसीलिए युद्ध के मैदान में पूरी तैयारी के साथ जाना चाहिए। विरोधी के बारे में अधिक से अधिक जानकारी जुटानी चाहिए। यह हमें वास्तविकता से परिचय कराता है और जीत का मार्ग सुनिश्चित करता है।

उपरोक्त संदर्भ में देखें तो गलत काम देखकर साधारण मनुष्य को भी पहले तकलीफ और फिर क्रोध आता है। यही नहीं एक आमजन की मानवता आहत होती है। अधर्म के चरम पर पहुंचते ही हम आंदोलित होते हैं। मगर सच पूछे तो समाज और आदमी के भीतर छिपा शैतान अधिक तकलीफ देता है। उदाहरण कई हैं मसलन, जब एक बाप अपने बच्चों के पेट की रोटी काटकर उन्हें भूखे रखते हुए अपने शराब का इंतजाम करता है, एक वहशी पुरुष किसी औरत की इच्छा के विरुद्ध में जाकर उसके साथ जबरन दुष्कर्म करता है, एक स्वार्थी आदमी अपनी इच्छाओं के लिए कइयों का जीवन बर्बाद कर देता है, एक दुष्ट अपने क्रोध और अहम्‌ को शांत करने के लिए किसी सज्जन की हत्या कर देता है, एक राजा अपनी क्षुद्र राजसी महत्वाकांक्षाओं के लिए प्रजा को नरक में झोंक देता है, जब आबादी का एक हिस्सा गरीबी में पलता है और दूसरी ओर कुछ मुट्ठीभर लोग आलीशान जीवन जीते हैं। इन कृत्यों को अंजाम देने वाले तमाम लोग कभी भी घोषित राक्षसों की श्रेणी में नहीं आते, मगर समाज को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। ये सफेदपोश मनुष्य के भेष में भेड़िये हैं जो अंदर रहकर व्यवस्था को दीमक की तरह खा जाते हैं। ये हमारी आधुनिक व्यवस्था की उपज हैं। इन्हें पहचानना मुश्किल होता है इसीलिए इन्हें चिन्हित करना होगा। घोषित राक्षसों से युद्ध करना आसान रहा है मगर छिपकर बैठे ये दुष्ट, चालाक, धूर्त नाटककार व बहुरूपिये हैं। इनके साथ उतनी ही सजगता के साथ पेश आना होगा। राक्षस भी अपने मूल रूप में उतना तंग नहीं करते जितना मानवीय सभ्यता से उपजे ये नर-पिशाच परेशान करते हैं। क्योंकि प्रकृति ने हर एक को सहअस्तित्व के नियम के साथ जीने की व्यवस्था प्राकृतिक रूप में कर रखी है। वैसे तो मनुष्य की बनाई दुनिया ने भी अनैतिक, अधर्मी, असमाजिक आदि विश्लेषण वाले नाम के दुष्कर्म परिभाषित कर रखे हैं और वे अपराध के रूप में घोषित भी हैं, लेकिन हैरान करने वाली बात है कि ये अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार्य भी हैं। उलटे हमने इन्हें बढ़ाने में कोई कमी नहीं कर रखी है। कई बार तो व्यवस्थाएं इसे पोषित और विकसित करती हुई जान पड़ती हैं। यह अवस्था अधिक कष्टदायक होती है। यकीन मानिये, जब व्यवस्थायें राजा को जुल्म करने में सहयोग करने लगे और भाट उनकी तारीफ करें तो राजतंत्र निरंकुश मगर पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। प्रजा प्रारंभ में त्राहि-त्राहि करती है मगर क्रांति का बीज भी असंतोष से ही पनपता है। इतिहास भी ऐसे तंत्र को कभी माफ नहीं कर पाता।

इस बात की स्वीकारोक्ति तो है कि मानवीय जीवन के हर युग में, हर समाज में, हर तरह के लोग पाये जाते रहे हैं। इनका अस्तित्व एक-दूसरे से जुड़ा हुआ है। इन्हें पूरी तरह समाप्त करना शायद संभव नहीं। लेकिन हम हर उस बुरी चीज को सीमाओं में तो रख सकते हैं जिससे कि वह किसी और के लिए दुःख का कारण न बने। अति किसी भी चीज की खराब होती है। कांटे तो होंगे हर गुलाब के फूल के साथ, मगर हम यह कोशिश तो कर ही सकते हैं कि वे पेड़ की टहनियों में रहें, न कि रास्ते में आयें। और अगर किसी पगडंडी में कांटे मिल जायें तो हमारा दायित्व है कि हम उसे हटाकर आने वाले पदयात्री के लिए रास्ता साफ करें। तो ये पैरों को लहूलुहान करेंगे और आपके पदचिन्ह इतिहास के पन्नों पर खून से लथपथ नजर आयेंगे।