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पढ़े-लिखे मूर्ख

आधुनिक युग और प्राचीनकाल में एक विशिष्ट अंतर देखा जा सकता है। आज पहले की अपेक्षा पढ़ने-लिखने पर अधिक जोर दिया जाता है जबकि पूर्व में समझदार होना अधिक महत्वपूर्ण होता था। जीवन के अनुभवों से व्यवहारिक ज्ञान को सीखकर आत्मसात्‌ करते हुए जीवन जीना समझदारी के मूल में था। भौतिक जगत के ऐश्वर्य की अपेक्षा आत्मिक-सुख केंद्र में होता था। स्वयं से ऊपर परिवार और समाज को स्थान दिया जाता था। संक्षिप्त में कहें तो प्राथमिकताएं भिन्न थीं। वर्तमान में पढ़-लिखकर ज्ञान अर्जित करना ध्येय नहीं होता बल्कि इसका उपयोग परिवार चलाने के लिए जीवनोपार्जन के रूप में किया जाता है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से शिक्षा की संपूर्ण प्रक्रिया जीवन-मूल्य से दूर ही रहती है। शायद यही कारण है जो यह आम धारणा समाज में फैली हुई है कि पढ़ा-लिखा आदमी जरूरी नहीं कि समझदार भी हो। ‘पढ़े-लिखे मूर्ख’ एक व्यंग्यात्मक कथन के रूप में आम लोगों के बीच में प्रयोग में लाया जाता है। कहावतें एवं लोकोक्तियां आमतौर पर गलत नहीं होंती। इसके अंदर छिपे भावार्थ बहुत हद तक बहुत कुछ कह जाते हैं। ये गागर में सागर के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। यह उपरोक्त संदर्भ में सच न हो इसकी कोई वजह नहीं। अपनें चारों ओर नजर घुमाकर देखने पर उपरोक्त व्यंग्यात्मक कथन में कुछ भी गलत नहीं लगता। पढ़ना-लिखना अर्थात स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम की पुस्तकों को पढ़ना और फिर रटकर-घोटकर उसी को विभिन्न तरह से पूछे जाने पर विभिन्न परीक्षाओं के लिए लिखना। पढ़ने के दौरान कुछ हद तक हम इसके शब्दार्थ तक तो चले जाते हैं लेकिन भावार्थ के आते-आते गोल हो जाते हैं। विज्ञान और गणित शास्त्र में इन बातों का यूं भी कोई चक्कर नहीं और ये कहीं भी जीवन के भाव से नहीं जुड़ते। बहरहाल, अन्य विद्या के क्षेत्र में भी, सीधे सरल शब्दों में कहें तो हम मूल तथ्य को समझ नहीं पाते। और अगर समझ भी लें तो जीवन से उसे जोड़ नहीं पाते। ऐसे में व्यवहारिक जीवन में उसे उतारने की सोचना भी मूर्खता होगी। सामान्य ज्ञान-विज्ञान-गणित को छोड़ दें तो पढ़ाई गयी शिक्षा में से हम कितना दैनिक जीवन में उपयोग में ला पाते हैं? यह पढ़े-लिखों की विडंबना नहीं आधुनिक शिक्षा प्रणाली की हकीकत है।

सरकारी आंकड़ों पर यकीन करें तो समाज में शिक्षित नागरिकों का प्रतिशत बढ़ रहा है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि विभिन्न सामाजिक समस्याएं भी उसी रफ्तार से कम हो रही होंगी। मगर ऐसा है नहीं। उलटे अधिकांश स्थानों पर देखा गया है कि समस्याएं बढ़ रही हैं। लोगों के जीवन में अशांति फैल रही है। परिवार में विघटन, समाज में अराजकता है तो तकरीबन हर जगह असामाजिक तत्वों का बोलबाला है। शुद्ध शब्दों में कहें तो चारों ओर हा-हाकार मचा हुआ है। यूं समझ लो कि आग लगी हुई है। हो सकता है कि इसमें थोड़ी अतिशयोक्ति लग रही हो मगर इसे कौन अस्वीकार कर सकता है कि जीवरस नदारद है और जीवन रूपी वृक्ष सूखता चला जा रहा है। नीरसता ने हमारे दिन-रात पर कब्जा कर लिया है। आखिरकार ऐसा क्यों?

असल में पढ़े-लिखे के समझदार न होने की बात से एक हद तक समझौता किया जा सकता है लेकिन मुश्किल इस बात से अधिक पैदा होती है कि पढ़ने-लिखने के बाद व्यक्ति के मन में एक झूठे अहम की भावना पैदा हो जाती है। वो स्वयं को सबसे अधिक होशियार, बुद्धिमान और अप्रत्यक्ष रूप से चालाक भी समझने लगता है। वह मानने लगता है कि वह जो सोच रहा है वही सच है। ये स्थिति तब और अधिक घातक होती चली जाती है जब वो किसी और की बात सुनने को राजी ही नहीं होता। ऐसे में उसके गलत होने का उसे पता ही नहीं चलता। और वह अपनी धुन में चलता चला जाता है। यह स्थिति एक अंधी सुरंग के समान है जिसमें घुसने पर फिर कुछ दिखता नहीं और ऐसे में कहीं रुकना घबराहट पैदा करता है और यह खतरे से खाली नहीं। चारों ओर फैला अंधेरा संदर्भों को और अधिक क्लिष्ट बना देता है। अब इसे क्या कहेंगे? छोटी-सी-छोटी भौतिक सफलता भी मनुष्य के अंदर के झूठे अभिमान को बढ़ी तेजी से बल देती है। वह स्वयं को तीरंदाज समझने लगता है। जब वह किसी की सुनता ही नहीं है और सिर्फ अपने ही विचारों के इर्द-गिर्द घूमते हुए आत्मकेंद्रित होकर चलने लग पड़ता है तो जाने-अनजाने ही वह दुनिया से कट जाता है। वह अपने चारों ओर एक अदृश्य दीवार खड़ी कर लेता है। आज चूंकि हर दूसरा आदमी तथाकथित रूप से पढ़ा-लिखा हो चुका है तो सबकी अपनी-अपनी दीवारें हैं। इसने न केवल पूरे समाज को बल्कि घर-परिवार में भी छोटे-छोटे कक्ष बना दिए। ये दीवारें अकसर एक-दूसरे से टकराती हैं। सबसे पहले तो ऐसे में मनुष्य अकेला हो जाता है। पारिवारिक और सामाजिक तानाबाना टूटने से उसकी मनःस्थिति असंतुलित होने लगती है। चूंकि उसने बातचीत के सारे रास्ते बंद किए होते हैं, ऐसे में उसे समझाये कौन? परिणामस्वरूप वह अपने ही मक्कड़जाल में फंसता चला जाता है। जीवन नीरस और परिवार टूट जाता है। बेशक खुशियां अंदर से पैदा होती हैं लेकिन सुख की अनुभूति चार लोगों के बीच बांटने से ही फैलती और महसूस की जा सकती हैं। अब जब उसके पास कोई है ही नहीं तो वह सुख और दुःख दोनों में खुद को अकेला खड़ा पाता है और सुख का आनंद और दुःख को सह नहीं पाता है। यह परिस्थिति दिन-प्रतिदिन बढ़ती हुई विकराल रूप धारण करती जा रही है, हर क्षेत्र में। और यहां से शुरू होती है मानसिक विकार की कहानी।

पूर्व में एक आम आदमी बचपन से ही सबसे पहले घर-परिवार के बड़े-बुजुर्गों को देखकर सीखता था। उसे बताने-समझाने वाले एक नहीं अनेक होते थे। हां, उम्र के साथ-साथ इस प्रक्रिया में वह अपनी पसंद-नापसंद स्थापित कर लेता था। लेकिन इस चक्कर में उसका संपर्क कइयों से संबंध के रूप में परिवर्तित होकर स्थापित हो जाता था। यह रिश्ते तमामउम्र साथ चलते थे। इनका व्यक्ति पर जोर होता था। प्रेम होता था। विश्वास होता था। अमूमन ये संबंध एक-दूसरे की भलाई में काम करते थे। गलत काम करने पर टोकाटाकी और सही रास्ते में जाने पर शाबाशी मिलती थी। आदमी को हरपल मार्गदर्शन मिलता रहता था। हर रूप में। धार्मिक, सामाजिक, व्यवहारिक, राजनैतिक। अध्ययन अध्यापन की पाठशाला घर में जीवनपर्यंत चलती रहती थी। खुद के नाती-पोता हो जाने के बावजूद लोग अपने से बड़ों का लिहाज करते थे। इससे सामाजिक तानाबाना बना रहता था। बड़ों के पास जीवन के तमाम अच्छे-बुरे अनुभवों का निचोड़ हुआ करता था। जरूरी नहीं कि गिरकर व चोट खाकर ही सीखा जाये। दूसरों के अनुभवों से सीखकर बचा भी जा सकता है। यही नहीं धर्म भी एक महत्वपूर्ण रोल अदा करता था। धार्मिक कथा-कहानियों को सुनकर आम आदमी जीवन रहस्यों से परे जाकर सामाजिक संदर्भ को आसानी से समझ लेता था। और इस तरह अपने दैनिक जीवन की मुश्किलों को सुलझा लिया करता था। समाज और परिवार पर आई विपत्ति के उपाय भी ढूंढ़ लिये जाते थे। मुसीबतें तो तब भी कम न थीं लेकिन कम से कम जीवन और उसका अहसास तो था। मिल-जुलकर चुनौती को स्वीकार करने का हौसला तो था। आज का आधुनिक पढ़ा-लिखा मनुष्य ध्यान से देखें तो धार्मिक स्थलों पर अधिक जाता है। लेकिन इसका विश्लेषण करें तो पायेंगे कि वो किसी ज्ञान की बातों को सुनने-समझने के लिए नहीं, आत्मिक शांति के लिए नहीं, बल्कि अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए जाता है। उसकी इस कृत्रिम श्रद्धा के मूल में कहीं न कहीं डर छिपा होता है। वो किसी अनहोनी से बचने या फिर महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए धार्मिक स्थलों की ओर अधिक जाता है। मांगने की फितरत व चाहत ने इन स्थानों पर लंबी कतार लगा दी है। आधुनिक आदमी को तुरंत कुछ न कुछ चाहिए, वो इसे छिपाने की कोशिश तो पूरी करता है मगर यहां भी उसकी चालाकी कहीं न कहीं प्रकट हो ही जाती है। सच तो यह है कि वह हिसाब-किताब करने लगता है। बहरहाल, अधंविश्वास बढ़ रहा है। धार्मिक असहिष्णुता बढ़ रही है। मनुष्य संवेदनहीन हो रहा है। उदारता व मानवता की जगह कठोरता और राक्षस प्रवृत्ति तेजी से पनप रही है। किसी भी तरह की कट्टरता के पीछे यूं तो नासमझी ही होती है, लेकिन कह सकते हैं कि मूर्खताएं बढ़ रही हैं। जिस तरह की पूजा-अर्चना और दान-भिक्षा आधुनिक युग में ली-दी जाती है, ऐसा धार्मिक आचारण पूर्व में नहीं होता था। आस्थाओं पर तर्क करना तो यहां पर ठीक नहीं होगा लेकिन आज के मनुष्य की सोच और नियति देखकर एक बात आसानी से कही जा सकती है कि वह पढ़ा-लिखा मूर्ख है।