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क्या हम सभ्य नागरिक हैं?

विगत सप्ताह चंडीगढ़ में एक राजनेता द्वारा सार्वजनिक पार्क को व्यक्तिगत कार्यक्रम के लिए इस्तेमाल किया गया। हिन्दुस्तान में यह आम बात है लेकिन फिर भी शहर के सभी मुख्य समाचारपत्रों ने इसे प्रमुखता से छापा था। प्रजातंत्र के लिए यह शुभ संकेत है कि गलत चीजों का खुलकर विरोध होता है। और हर एक की जवाबदेही है। पूर्व में भी इसी तरह की खबरें छपती रही हैं। अभी कुछ समय पूर्व हिमाचल में एक राजनैतिक रैली के दौरान एक मरीज अस्पताल नहीं पहुंच पाया था और रास्ते में ही दम तोड़ गया था। बहुत हो-हल्ला हुआ था। राजधानी दिल्ली में अतिमहत्वपूर्ण व्यक्तियों के लिए रास्ते बंद करने पर लोग अक्सर चिल्लाते और झल्लाते देखे जा सकते हैं। मीडिया में भी इसकी चर्चा होती रहती है। पुलिस भी आवश्यक सूचना व बेहतर इंतजाम के प्रयास करती रहती है। देखने वाली बात है कि दिल्ली एवं इसी तरह राज्य की राजधानियां व अन्य प्रमुख शहरों में तो इस तरह की खबरों को लिखना-पढ़ना संभव है, लेकिन छोटे और पिछड़े इलाकों में क्या ऐसा लिखा जा रहा है? क्या वहां विरोध किया जा सकता है? कहने वाले कहेंगे कि जागरूकता धीरे-धीरे हर जगह आ रही है और कुछ समय बाद हर जगह इन बातों का नोटिस लिया जायेगा। हो सकता है यह ठीक बात हो। मगर साथ ही यह भी सत्य है कि राजनेताओं के विरोध में लिखना अब जितना आसान होता जा रहा है उतना ही ताकतवर एवं बदमाशों के खिलाफ खुलकर बोलना मुश्किल। और किसी धार्मिक नेता या वर्ग के गलत कार्यों के लिए लिखना-बोलना तो नामुमकिन हो चुका है। फिर चाहे इनके क्रियाकलापों से सामान्यजन को जितनी मर्जी असुविधा होती हो। और तो और जितना बड़ा समाचारपत्र हो, विकसित शहर हो, इनके विरोध में खुलकर लिखने से पहले अच्छे-अच्छे दस बार सोचते हैं। ऐसा क्यों?

समाचारपत्र की रिपोर्टिंग से ही पता चला था कि उपरोक्त कार्यक्रम से अगले दिन, पार्क में सुबह की नियमित सैर करने वाले लोगों को असुविधाओं का सामना करना पड़ा था। हरे-भरे पेड़-पौधे व सुंदर और कोमल घास को नुकसान पहुंचा वो अलग। ट्रक और गाड़ियों की आवाजाही से कई रेलिंग टूट गए थे। समतल जमीन कई जगह से अचानक उबड़-खाबड़ हो गयी थी। चारों तरफ जो गंदगी फैली होगी उसका तो कोई हिसाब नहीं। भारत में पार्कों, खेल के मैदानों व स्टेडियम की दुर्दशा का यह एक आम दृश्य है। राजनेता ही क्यों सामान्यजन भी अपने घर की आगे की जगह में या फिर सामने के बागीचों में व्यक्तिगत कार्यक्रम करते रहते हैं। कुछ व्यवस्थित और बड़े शहरों में उपरोक्त बातें जरूर उठ जाती होगी, अन्यथा बाकी अधिकांश शहरों में लोग इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। कस्बों की तो बात ही क्या कहना। मोहल्ले के पांच-दस घर मिलकर अगर कोई कार्यक्रम करना चाहें तो फिर तो इसे सामाजिक कार्यक्रम का नाम दे दिया जाता है। फिर बाकी बचे लोगों को इससे चाहे जितनी असुविधा हो तो हो। साथ अगर कोई धार्मिक संदर्भ जुड़ गया फिर तो किसी के कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं। और अगर किसी ने कुछ बोलने की कोशिश की तो सीधे बात को बढ़ा दिया जाता है और स्थिति बिगड़ने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। यह तो एक राजनेता था इसीलिए उपरोक्त खबर छप गयी। अन्यथा किसी धार्मिक गुरु के खिलाफ कौन बोल सकता है। आजकल राजनेताओं की सार्वजनिक स्थिति वैसे ही ठीक नहीं। प्रजातंत्र का यह फायदा तो है ही कि शासन करने वालों के ऊपर वोट की खातिर अंकुश रखा जा सकता है। वरना शासन के खिलाफ बोलने की हिम्मत हिन्दुस्तान में भी पहले संभव नहीं थी। बहरहाल, उपरोक्त खबर छपने के अगले दिन सुबह की सैर में मैंने पाया कि एक बेहतरीन नयी बनायी गई सड़क को जगह-जगह से सिर्फ इसलिए तोड़ दिया गया था कि वहां पर साज-सज्जा के लिए रंग-बिरंगे झंडों को लगाया जाना था, स्वागत द्वार बनाये जाने थे, आकर्षक लाइटें लगाई जानी थी। बड़े-बड़े बैनरों को देखकर पता चला कि वहां कोई धार्मिक कार्यक्रम होना था। क्या हम सार्वजनिक स्थल के दुरुपयोग के विरोध में खड़े होकर इस तरह की खबर छाप सकते हैं? शायद आज के हिन्दुस्तान में यह संभव नहीं। राजनेताओं की राजनीतिक रैली, भाषण और इन तमाम चीजों पर खबर छापी जा सकती है मगर धर्म के नाम पर निकलने वाले जुलूस, पूजास्थल के चारों ओर फैली अस्तव्यस्तता, सार्वजनिक क्षेत्र का अतिक्रमण और फिर इससे होने वाली असुविधा को हम नजरअंदाज करते हैं। एक तो हमारी खुद की आस्था का प्रश्न उठता है, दूसरे किसी की भावना को ठेस न पहुंचे इसकी कोशिश भी रहती है। फिर चाहे बदले में कितना ही शारीरिक, मानसिक व पारिवारिक कष्ट क्यूं न हो रहा हो। धार्मिक भावनाएं, नैतिकता और सामाजिक प्रतिबद्धता के ऊपर हावी हो जाती है। दूसरा स्वयं हम ईश्वर के प्रकोप से डरते भी हैं। और फिर हर कोई यह भी सोचता है कि कौन झमेले में फंसे, परिणामस्वरूप सभी चुपचाप रहते हैं। जरा-जरा सी बात पर कुछ चंद अनुनायियों द्वारा, दुनिया दिखावे के लिए सैकड़ों गाड़ियों के जुलूस को निकालना, किसी धार्मिक कार्यक्रम के लिए आम बात हो गई हैं। तेज लाउडस्पीकर का इस्तेमाल तो हर कार्यक्रम का अभिन्न अंग है। बहुत छोटी-छोटी संस्थाओं व समूह के द्वारा भी अधिक से अधिक सड़कों पर प्रदर्शन की कोशिश होती है। खुद के अभिमान की संतुष्टि के लिए हरसंभव प्रयास किए जाते हैं। दूसरों से आगे बढ़-चढ़कर प्रतिस्पर्द्धा करने की होड़ भी देखी जा सकती है। लेकिन इससे दूसरों को होने वाली असुविधा के बारे में कोई नहीं सोचता।

इसमें कोई शक नहीं कि विदेशों में, विशेष रूप से पश्चिम देशों के नागरिकों में सिविकसेंस बहुत ज्यादा है। हमें चाहे जितना बुरा लगे मगर यह सत्य है कि इस क्षेत्र में वे हमसे कहीं बेहतर हैं। हर एक अपने और अपने आसपास के वातावरण को साफ-सुथरा रखने में सहयोग करता है। और सतर्क रहता है। सार्वजनिक चीजों के प्रति उनमें एक स्वाभाविक लगाव व जिम्मेदारी का भाव होता है। जिसे अपना ही मानकर उसकी उपयोगिता बरकरार रखने की कोशिश की जाती है। हमारी वर्तमान जीवन पद्धति में, हम चाहे स्वयं को जितना मर्जी पढ़ा-लिखा, आधुनिक सूटबूट वाला घोषित कर दें, हमारी मानसिकता स्वयं से आगे नहीं बढ़ पाती। हम अपने सोच के दायरे को विशाल व उसमें परिपक्वता ला पाए हों, दिखाई नहीं देता। तभी तो हम अपनी सार्वजनिक सुविधाओं को इस तरह से इस्तेमाल करते हैं कि शायद आगे कभी जरूरत न पड़े। जबकि यह सत्य नहीं है। हिन्दुस्तान की नयी से नयी बस्ती व इलाके, शहर के अच्छे से अच्छे मॉल में चले जाएं, कुछ महीने बाद ही गंदगी मिलने लगेगी। प्रकृति द्वारा हमें जो धूल, गर्मी, कीचड़ और बरसात नैसर्गिक विरासत में मिली है वो तो हमारे लिए एक चुनौती है ही मगर हमने नियंत्रित करने के स्थान पर उसे सदा बढ़ाया है। हर एक पाठक जिसमें लेखक भी शामिल है, अपने किसी भी एक दिन की दिनचर्या को विश्लेषित कर लें, क्या हमने आसपास के वातावरण को सुव्यवस्थित करने में कोई पहल की है? या उसे सुंदर बनाने की कोई कोशिश की हो? नहीं। और अगर हुयी भी होगी तो उसका प्रतिशत बहुत कम होगा। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना होगा कि हम में से अधिकांश समाज की भलाई के संदर्भ में एक अव्यवस्थित व कमजोर इच्छाशक्ति वाले अनियंत्रित नागरिक हैं। ऐसा मानने पर ही हमारे सुधरने की संभावना बन सकती है।