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प्रकृति के चक्र

बचपन में अधिकांश ने अपने स्कूली पाठ्यक्रम में पानी के चक्र को पढ़ा होगा। नदी-तालाब-समुद्र के पानी का सूरज की गर्मी से भाप बनना, इससे आसमान में बादल का निर्माण और फिर दबाव में आने पर बरसात का होना। अर्थात अंत में पानी की फिर नदी-नालों में वापसी। यह आसान सवाल हुआ करता था। विद्यार्थी अमूमन चित्र सहित विस्तार में उत्तर देते। एक और चक्र पढ़ने में अकसर आता, भोजन-चक्र। जंगल में हरी पत्तियां खाकर शाकाहारी जीव-जंतु पलते और इन्हें खाकर मांसाहारी जिंदा रहते। छोटे को बड़ा जानवर खाता और सभी प्रतिदिन मल-मूत्र त्यागते जो एक बार फिर खाद रूप में वनस्पति उत्पादन में सहयोग करता। विस्तार से अध्ययन करने पर आश्चर्य होता था। यह आज भी रोचक लगता है। इस चक्र के भीतर भी कई चक्र हैं। सभी एक-दूसरे से किसी न किसी बिंदु पर जुड़े हैं। कीड़े-मकोड़े को खाने वाले पक्षी, इनके अंडों को नष्ट करने वाली बिल्ली से लेकर सांप और उसके पीछे नेवला। ओह! यह कहीं न कहीं फिर आपस में जुड़ जाता है। पानी के भीतर भी तो एक पूरा जीवन-चक्र है। पानी में बिखरी हरियाली और दूसरे भोज्य को खाने वाली मछलियां और छोटी को निगलने वाली बड़ी मछलियां तो इनके इंतजार में कई मगरमच्छ घात लगाये बैठे रहते हैं। यह श्रृंखला कहीं-कहीं टूटती-सी प्रतीत होती है। मगर हकीकत में आगे जाकर कहीं न कहीं आपस में जुड़ ही जाती है। अर्थात सब कुछ एक श्रृंखलाबद्ध चक्र में अपना-अपना रोल अदा कर रहे हैं। ऋतु-चक्र को भी बड़ी आसानी से समझा जा सकता है। दिन और रात का चक्कर हररोज सोते-जागते देखते हैं। है न सब कमाल का मायाजाल।

चक्र। लट्टू का एक नोक पर घूमना। सब कुछ एक केंद्र के चारों ओर दौड़ता नजर आता है। विभिन्न आकार वाले गोल चक्कर में। पृथ्वी ही नहीं अन्य ग्रह-उपग्रह भी गोल हैं। और ठीक लट्टू की तरह घूम रहे हैं। यही नहीं साथ ही साथ किसी न किसी को केंद्र में रखकर उसके चारों ओर भी अलग-अलग परिधि में घूम रहे हैं। अपना-अपना विशिष्ट चक्र बनाते हुए। ऐसा ही बहुत कुछ सभी पदार्थों के अणु में होता है। जहां इलेक्ट्रॉन केंद्र में स्थित प्रोटोन-न्यूट्रान के चारों ओर घूमते पाये जाते हैं। दोनों ही परिदृश्य हम आंखों से देख नहीं सकते हैं। मनुष्य का दुर्भाग्य है। मगर उसकी लगनता और बुद्धिमत्ता ने इस शाश्वत सत्य से साक्षात्कार जरूर कर लिया। सामान्य मानव इसकी कल्पना करे तो आश्चर्य के साथ मनमोहक चित्र उपस्थित होगा। मनुष्य स्वयं को प्रकृति की सबसे महत्वपूर्ण देन मानता है। उसका जीवन भी एक चक्र ही तो है। शिशु का जन्म, यही बच्चा बड़ा होकर जवान फिर वृद्ध और अंत में मृत्यु। जीवन-मृत्यु का यह चक्र यहां टूटा हुआ महसूस होता है। तो क्या इसीलिए अधिकांश पुरातन जीवनधारा में पुनर्जन्म का विचार कौंधा होगा? हो सकता है। चौरासी लाख योनियों में जन्म का विचार भी कहीं इसी चक्र के सिद्धांत का प्रतिफल तो नहीं? इस संभावना को नकारा नहीं जा सकता। हमारे आम सामाजिक चिंतन में भी इसे देखा जा सकता है। तभी तो हर दुखी को कहा जाता है कि ये समय भी बीत जाएगा अर्थात अच्छा समय भी आएगा। और इस तरह सुख-दुःख के चक्र का सतत ग्राफ हमारा जीवन-सार बन जाता है। उपरोक्त सभी उदाहरणों में एक बात समान रूप से उपस्थित है कि यहां निरंतर परिवर्तन हो रहा है। स्थान, रूप, अवस्था आदि में एक किस्म का रूपांतर। ऐसा ही कुछ ऊर्जा के साथ भी है। यहां यह सिद्धांत अपने आप ही पूरी तरह से प्रमाणित हो जाता है कि ऊर्जा न तो पैदा की जा सकती है न ही नष्ट होती है। यह सिर्फ अपना स्वरूप परिवर्तित करती है। अर्थात श्रृंखलाबद्ध रूप में कायांतरण प्रकृति का मूल गुण प्रतीत होता है वो भी गोल चक्र में। यह हमारी पृथ्वी पर ही नहीं, सौरमंडल के ग्रहों, उपग्रहों और यहां तक कि अन्य तारों के इर्दगिर्द भी देखा जा सकता है। सभी तारों का अपना संसार है जहां उसके ग्रह उसका चक्कर लगा रहे हैं। इनके जन्म संबंधित विज्ञान के सिद्धांत में भी चक्र है जो की रोचक है। ये ग्रह-उपग्रह इन तारों से ही उत्पन्न हुए हैं और एक समय के बाद फिर इन्हीं में समा जाते हैं।

हमने आकाश को हमेशा कौतूहलता से देखा है। यह हमेशा हमें भयभीत की हद तक अचंभित करता है। इस पर हमें हमेशा आश्चर्य होता है और जिज्ञासावश हम अनुमान लगाते रहते हैं। हम इसके उत्पन्न होने के कारणों और अन्य संबंधित पहलुओं पर सदा से भ्रमित मगर विचारशील रहे हैं। आकाश हमारे इर्दगिर्द फैली प्रकृति का ही बाह्य अंग है। बहुत हद तक सबसे महत्वपूर्ण। विशाल और अनंत। चूंकि यह भी हमारा ही एक हिस्सा हुआ तो क्या उपरोक्त प्रकृति के चक्र और परिवर्तन की विचारधारा यहां भी पूरी तरह लागू होनी चाहिए? बिल्कुल। क्योंकि प्रकृति कभी भी दोतरफा खेल नहीं खेलती। अलग-अलग नियम नहीं बनाती। वो अपने सिद्धांतों पर लचीली हो सकती है मगर समभाव रखती है। नहीं तो विज्ञान का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता। शायद कुछ हद तक यह एक बार फिर प्रमाणित भी हो रहा है तभी तो अनुमान लगाने के बावजूद आकाश के संदर्भ में कुछ इसी तरह की सोच बनती है। हमनें अपनी आकाशगंगा में विभिन्न सौर-मंडलों को भी कुछ इसी तरह गोल चक्कर लगाते हुए की कल्पना कर रखी है। इसे हम सीधे-सीधे देख तो नहीं सकते मगर विभिन्न वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा इसे सत्यापित करते रहे हैं। आकाशगंगा खुद किसी एक केंद्र के चारों ओर अपने निराले गोल आकार में चक्कर लगाती बताई जाती है। ब्रह्मांड को लेकर हम कोई सुनिश्चित मत कायम नहीं कर पाये हैं। हमने खोज के लिए मानव-निर्मित उपग्रह भेज रखे हैं। मगर दूरियां और समय के पैमाने पर यह सब हास्यास्पद लगता है। बहरहाल, मानव की कोशिश को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, जिसका प्रतिफल है कि समय-समय पर परिवर्तित विचारधाराएं नये सिद्धांत के साथ आती रही हैं। यह लाजिमी भी है। ऐसे में शायद हमें अपने ब्रह्मांड के आकार, आचरण और उत्पत्ति पर भी कुछ इसी तरह की सोच बनानी पड़े, तो गलत नहीं। जब हम कुछ देख नहीं सकते और जो देख रहे हैं वो इतना सीमित है और अनंत दूरियों के कारण सदियों पहले बीत चुका होता है कि सोचते ही भ्रमित करने लगता है। ऐसे में फिर अनुमान ही लगाना है तो उपरोक्त प्रकृति का सिद्धांत क्या गलत है कि सब कुछ परिवर्तनशील है और अपने-अपने विशिष्ट आकार के गोलचक्र में घूम रहा है, एक निरंतर प्रक्रिया के तहत श्रृंखलाबद्ध। ब्रह्मांड का भी जीवनचक्र होना चाहिए। हमारा ब्रह्मांड यकीनन अपने चक्र के किसी एक बिंदु पर इस वक्त होगा। यहां यह भी साफ कर देना चाहिए कि ब्रह्मांड किसी एक बिंदु पर (बिग बैंग सिद्धांत की तरह) उत्पन्न नहीं हो सकता, न ही किसी बिंदु पर (ब्लैकहोल में) नष्ट हो सकता है। हां, बिग बैंग की घटना और ब्लैकहोल का निर्माण इस ब्रह्मांड की चक्र-क्रिया का एक पड़ाव हो सकता है। ब्रह्मांड की एक अवस्था हो सकती है, जिसे समय के साथ आगे बढ़कर गोल घूमते हुए अगले बिंदु पर जाना चाहिए। यूं तो अंतरिक्ष में दिशा एक पहेली बन जाती है मगर ब्रह्मांड का जीवन किसी भी हाल में सिर्फ एक दिशा में नहीं चल सकता। हां, उसके चलने की लकीर हम मानवीय नजरों की सीमित क्षमता के कारण कुछ हद तक सीधी प्रतीत हो सकती है, मगर अंत में घूमकर इसे पुनः अपनी पूर्व अवस्था में आना जरूर चाहिए। प्रकृति की तमाम घटनाएं इशारा तो यही करती हैं। हो सकता है आज इसे समझने में हमारी नजरों को धोखा हो रहा हो। जैसे कभी पृथ्वी के संदर्भ में भी युगों तक रहा है। एक बात और, सभी के चक्र का समय अलग-अलग निर्धारित होता है। कई चक्र मिनटों में घूम जाते हैं तो कइयों का सालों में एक बार पूरा होता है। कई शायद लाखों साल में एक बार घूम पाते हों? क्या पता! ब्रह्मांड का चक्रव्यूह समय के पैमाने पर कहां फिट बैठता होगा और अभी अपने चक्र के किस स्थान पर खड़ा हो? कहना और समझना मुश्किल है। इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है।

यह एक पहेली है जिसे सुलझाना इतना आसान नहीं और अंधेरे में तीर चलाने का फायदा नहीं। मगर यह जरूर है कि सब कुछ चक्र में घूमता होना चाहिए, जिस पर सिद्धांत बनाया और प्रमाणित किया जा सकता है, क्योंकि ऐसा हो रहा है। मगर ऐसा ही क्यों हो रहा है, इसकी जानकारी हमें नहीं। कोई भी प्राकृतिक घटना को हम देखकर उस पर अपनी राय जरूर कायम करते हैं और फिर विज्ञान सिद्धांत रूप में इसे परोसता है। मगर ऐसा ही क्यूं होता है, नहीं जान पाते। मसलन, पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण सबको अपनी ओर खींच लेता है और हम इसे पदार्थ का गुण मानकर तमाम सिद्धांत गढ़ते हैं, मगर यह गुण होता ही क्यूं है? और ये ऐसा ही क्यों? यही असली रहस्य है। ऐसे ही कई रहस्य हैं जो हमारी समझ से बाहर है। हम उसकी क्रियात्मकता को ही देख-देखकर समझ बनाते हैं। और हमारी समझ प्रकृति के किसी नये क्रियात्मकता को देखते ही तुरंत धराशायी भी हो जाती है। अर्थात हमारे वैज्ञानिक सिद्धांत भी कितने परिवर्तनशील हैं। बहरहाल, विनाश से सृजन, हर चक्र का अहम पहलू है। यह दीगर बात है कि मौत हमारे लिये सबसे बड़ा रहस्य है। जबकि ऐसे अनगिनत रहस्य हैं जो हमें आम जिंदगी में दिखते हैं। यहां अनायास ही प्रश्न उठता है कि कहीं रहस्य भी तो श्रृंखलाबद्ध ढंग से अपने चक्र में तो नहीं घूम रहे?