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मैं क्या हूं?

ऐसा कोई जरूरी नहीं कि इस तरह के सवाल वैचारिक विमर्श करने वाले या दर्शनशास्त्र से संबंधित लोग ही अपने आप से पूछ सकते हैं। सामान्य अवस्था में भी कई बार आमजन यह सवाल करने लगता है। मैं कौन हूं? कहां से आया हूं? इस तरह के प्रश्न करके, मैं शाश्वत रहस्य के घोर अंधकारमय ब्लैक-होल में अपने आप को अस्तित्वहीन नहीं करना चाहता। मैं तो लेखन की दृष्टि से, स्वयं को पहचानकर परिभाषित करने की यहां कोशिश कर रहा हूं। वैसे तो अब तक लेखन में ऐसा कोई तीर नहीं मारा है। फिर भी बीच मझधार में रुककर यह जानने की मन में जिज्ञासा उठती रहती है कि ‘मैं क्या हूं?’ जैसे कि, क्या मैं कवि हूं? प्रारंभ के दिनों में एक खंडकाव्य को छोड़ दें तो मैंने कविता लेखन के क्षेत्र में अपनी तरफ से कोई खास पहल नहीं की। वैसे भी कविता स्वयं प्रकट होती है, लिखी नहीं जाती। और यह सौभाग्य मुझे प्राप्त नहीं। कभी-कभी छिटपुट पंक्तियां, इधर-उधर, क्षणिकाओं की तरह मस्तिष्क में कौंधित जरूर हैं, मगर मैं इतने मात्र से अपने आप को कवि घोषित कर दूं, उचित नहीं लगता। तो क्या मैं उपन्यासकार हूं? इस पर विचार करना पड़ेगा। दो उपन्यास लिख चुका हूं, तीसरे पर काम जारी है। कम से कम मेरी निगाह और अनुभव में यह सबसे कठिन साहित्यिक विधा है। एक लंबी पारी खेलनी पड़ती है। अनगिनत चरित्रों को लंबे समय तक जीने के लिए अपने मूल जीवन को त्यागना पड़ता है। इसके माध्यम से मुझे लगता है कि संपूर्ण समाज का समकालीन जीवन समेटा जा सकता है। इतिहास की समझ के साथ भविष्य की कल्पना भी की जा सकती है। यह मुश्किल कार्य है। और मेरी कोशिश अभी जारी है। उपन्यासकार मान लेने से शायद यह गति रुक जाए। वैसे मैं इस विधा में लिखने का आनंद ले रहा हूं और जुनून महसूस करता हूं। मगर मंजिल अभी दूर है। तो कहीं मैं कहानीकार तो नहीं? कुछ कहानियां लिखी जरूर है, मगर इस संदर्भ में कुछ कहना मुश्किल है। कई बार ऐसा लगता है कि कहानियां लिखना आसान होगा। चूंकि यह उपन्यास का छोटा रूप है। लेकिन यह सत्य नहीं। लिखने में समय जरूर कम लगता है। वैसे तो आज के दौर में समय की कमी के कारण आधुनिक पाठक व लेखक दोनों के लिए यह फायदे का सौदा है। लेकिन यहां सीमित शब्दों में असीमित कथा कह देने की कला आनी चाहिए। यह मुझे सीखने होगी। कोई दर्जनभर कहानी लिखने मात्र से कोई कहानीकार साबित नहीं हो जाता। बहरहाल, कहानी आम पाठक को पसंद आनी चाहिए। लेकिन इस चक्कर में इतनी हल्की भी न हो जाए कि आलोचक निरस्त कर दें। अमूमन आलोचक के लिए लिखी गई कहानी क्लिष्ट और समझ नहीं आती। आलोचक और पाठक, इन दोनों ध्रुवों के बीच संतुलन की आवश्यकता है। और ऐसा करने की मेरी कोशिश जारी है। तो क्या मैं एक स्तंभकार हूं? समाचारपत्रों में आम लेख लिखने वाले यूं भी साहित्य की दुनिया में स्वीकार्य नहीं। पत्रकारों का एक विशिष्ट वर्ग मात्र मानकर टरका दिया जाता है। ठीक भी तो है, फास्ट-फूड की तर्ज पर आवश्यकतानुसार लेख लिखने का फैशन है। पिछले कुछ वर्षों से साप्ताहिक लेख निरंतर लिख रहा हूं। सात दिन कलम घिसता हूं तब जाकर कभी-कभी पाठकों की अच्छी प्रतिक्रिया मिल पाती है। कई बार नये लोग सवाल पूछ लेते हैं कि आप किस तरह का लेख लिखते हैं? अब लेख को कैसे परिभाषित किया जाए? यह एक मुश्किल कार्य है। यह राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, खेलकूद, व्यंग्य, संस्मरण, विज्ञान आधारित कुछ भी हो सकता है। हल्का या गंभीर के साथ ही किसी एक वर्ग या विचारधार से प्रेरित या प्रायोजित भी हो सकता है। मैं इनमें से अपने आप को किसी भी एक शीर्षक के नीचे रखकर सीमित करने में असमर्थ हूं। और इसीलिए जवाब नहीं दे पाता। ऐसे में मेरा स्तंभकार कहलाना भी छिन जाता है। मैं लेखों में साहित्य का पुट और चिंतन का समावेश जरूर कर जाता हूं। जीवन का एक बिंदु उठाते ही सभी क्षेत्रों का घालमेल कर देता हूं। तो कहीं मैं व्यर्थ में कागज काले तो नहीं कर रहा?

शब्दों में परिभाषित व स्वीकृत होते ही कथन अकादमिक हो जाते हैं और सृजन की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। स्पेशलिस्ट का जमाना है। साहित्य में भी विशेषज्ञ बनाए जाने की कोशिश जारी है। मगर क्या यह संभव है? लगता नहीं। जयशंकर प्रसाद, ‘कामायनी’ के बाद कोई दूसरी अद्भुत रचना नहीं दे पाए। एक ही रचना से रचनाकार अमर हो जाता है, मगर अन्य रचनाएं भी अच्छी ही होंगी, इसकी संभावना साहित्य के क्षेत्र में कम ही है। अब चूंकि मैं आधुनिक फार्मेट में किसी भी क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं, तो अपने आप ही सामान्य की श्रेणी में खड़ा हो जाता हूं। यूं तो कुछ नया करने की चाहत, कल्पनाशीलता, जीवन में शब्दों से खेलने की ऊर्जा प्रदान करती रहती है। लेकिन सवाल यहां उठता है कि क्या रचनाकार सृजन प्रक्रिया के लिए पूर्ण रूप से समर्पित है। सीधे शब्दों में, क्या मैं स्वतंत्र रूप से अपने विचार रख पाता हूं? शायद नहीं। यहां कई दबाव, अनचाहे ही मन में आ जाते हैं। वैसे भी संपूर्ण सत्य समाज के लिए कभी भी आवश्यक नहीं रहा। और सच हमेशा कड़वा होता है, बोलकर इससे बचने का उपाय भी आदिकाल से बता दिया गया। ऐसा सच जो नुकसान करे, तकलीफ दे, असुविधाजनक हो, लोक हितकारी न हो, उससे क्या फायदा। अपने आप को संतुलित करना भी, समय के अनुरूप आवश्यक हो जाता है। ऐसा करते हुए मगर मैं सही शब्दों में साहित्यकार कहां रह जाता हूं?

कभी-कभी मन में सवाल उठता है कि क्या मैं अपनी रचनाओं में विकास विरोधी हूं? शायद नहीं। विकास शब्द में एक तरह की गतिशीलता है। परिवर्तन की प्र्रक्रिया दिखाई देती है। मगर यह फिर सदैव बेहतरी और साकारात्मक दिशा की ओर ही हो रही होगी, ऐसा भावार्थ निकलता है। उन्नति विकास शब्द से स्वतः ही जुड़ जाती है। और जब इन गुणों को मैं नहीं पाता तो किसी भी तरह के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक प्रक्रिया व विचारधारा को आधुनिकीकरण और विकास के नाम पर स्वीकृत कर लूं, उचित जान नहीं पड़ता।

कहीं मैं यथार्थवादी तो नहीं? शब्दार्थ को देखें तो जैसा होना चाहिए, सत्यपूर्वक, वाजिब, उचित, ठीक वैसा। अब यहां यथार्थ से मुंह मोड़ लेना सैद्धांतिक रूप से साहित्य सृजन की प्रक्रिया को समाप्त करने के समान होगा। यथार्थ से कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है? लेकिन क्या एक लेखक वास्तविकता को जान और समझ पाता है? दृष्टि और स्तर पर कहीं न कहीं फर्क जरूर रह जाता होगा। और फिर अपना-अपना व्यक्तिगत आकलन अपनी तरह की विशुद्धियां पैदा करता रहता है। तो क्या मैं प्रतिक्रियावादी हूं? यह शब्द अपने आप में मुझे भ्रमित करता है। मूल रूप से तो, सुधार करने वाले का विरोध करने वाले को यह कहा जाता है। मगर सुधार का वास्तविक धरातल पर अपना-अपना पैमाना हो सकता है। प्रतिक्रियावादी संदर्भित सुधार के प्रतिफल को ही मानने से इंकार करता है तभी तो विरोध करता है। ऐसे में वो सुधार विरोधी कैसे हुआ? साहित्य और कला के क्षेत्र में शब्दों को वैज्ञानिक रूप से समझने में मुझे हमेशा कष्ट हुआ। प्रतिक्रिया में भी क्रिया है और हर क्रिया से प्रतिक्रिया का जन्म होता है। यह क्रम निरंतर जारी है। ये ब्रह्मांड के मूल अवयव हैं। मैं अपने लेखन में इसे कितना उतार पाया, यह तो नहीं पता। हां, प्रकृति का रहस्य मुझे कई बार तंग करता है। तो कहीं मैं रहस्यवादी तो नहीं? हो सकता है। मुझे मानवीय स्वभाव, जीवन के रहस्य, सत्य और असत्य के बीच रेखाएं, भाग्य का खेल और ऐसी बहुत सारी बातें हैं, जो तंग करती हैं। अध्यात्म इस पर स्पष्ट नहीं हो पाता, बस सात्विक आत्मानुभूति हो जाती है। इसमें कई बार गहराई से सोचने लगता हूं। प्रकृति प्रेमी जरूर हूं लेकिन कितना समझ पाया हूं? इसमें अभी शंका है। तो कहीं ये मेरे चिंतक होने की निशानी तो नहीं? कभी-कभी आभास तो होता है लेकिन फिर यह चिंता है या चिंतन? या फिर मेरे असंतुष्ट व अपरिपक्व मस्तिष्क का स्वयं से पूछा गया मात्र एक प्रश्न? यह मुझे कई बार एक स्तर पर ले जाकर शून्य में पहुंचा देता है। तो कहीं मैं मूलतः शून्यवादी तो नहीं? लगता नहीं। चूंकि ईश्वरीय शक्ति मुझे सदैव स्वीकार्य रही है। जिसके दरबार में तर्क-वितर्क नहीं चलते। हां, यह भी सत्य है कि एक स्तर पर जाने के बाद निराकार ब्रह्म की कल्पना करने लगता हूं। अस्तित्वहीनता का अहसास आते ही सब कुछ सत्ताहीन व निरर्थक लगने लगता है। परम आनंद की परिकल्पना यहीं से प्रारंभ हो जाती है। जहां मैं अभी तक पहुंचा नहीं। अभी शून्यवाद में विचरण करने का साहस नहीं। ऐसा आदमी सामान्य जीवन में स्वीकार्य नहीं। पागल करार दिया जाता है। उसे व्यवहारिक न होना कहकर निरस्त कर दिया जाता है। और इतने सारे इल्जाम अभी झेलने की मुझसे शक्ति नहीं। क्या मैं प्रकृतिवादी हूं? आज की उपभोक्ता संस्कृति में रहने वाला, प्रकृतिवादी सिर्फ दिखावे के लिए हो सकता है। फैंसी आइटम की तरह। मात्र लोगों का ध्यान आकर्षण करने के लिए। ऐसे तो मैं फिर उपभोगवादी हुआ? इसका जवाब कभी हां कभी न में ही हो सकता है। इसी कारण तो राजनैतिक विचारधारा पर भी मैं पूरी तरह भ्रमित हूं। सुनने-पढ़ने तक सैद्धांतिक रूप से प्रजातांत्रिक हूं। मगर धरातल पर इसके साथ खड़ा नहीं हो पाता। मेरे मतानुसार इसके मूल में ही समस्या है। असल में शासन शब्द से ही मुझे परहेज है। इसके आते ही बाकी सारी मानवीय पक्ष व संवेदनाएं गौण हो जाती हैं। दूसरी ओर, राजाओं-महाराजाओं का मानवीय इतिहास पर लंबे समय तक शासन देख मुझे हैरानी होती है। मनुष्य को छोड़ कोई दूसरा पशु-पक्षी इतने लंबे समय तक अपनो के ही अधीन नहीं रहा। समाजवादी धाराएं आकर्षित जरूर करती हैं मगर इनके व्यवहारिक प्रस्तुतीकरण पर सदैव शंका बनी रहती है। तो मैं राजनैतिक रूप से किसी भी वाद में अपने आप को फिट नहीं बैठा पाता। और अंत में अपनी इसी बेतुकी विचारधारा पर आ जाता हूं कि सारी व्यवस्थाएं व शास्त्र मनुष्य द्वारा मनुष्य पर शासन करने के लिए बनी हैं। तो कहीं मैं क्रांतिकारी भावनाओं से प्रेरित तो नहीं? प्रश्न सुनते ही हंसी आती है। आज के बाजारवाद में क्रांति शब्द की कल्पना भी व्यर्थ है।

इतने सारे प्रश्नों के बीच भी ईश्वरीय आस्था बनी हुई है। तो क्या मैं आस्तिक हूं? घोर असफलताओं के बीच में, बेहद बेचैनी में, दुखों, कष्टों को देखकर कई बार सब कुछ व्यर्थ लगता है, और नास्तिक हो जाने का प्रण कर लेता हूं। यह होता क्षणिक ही है। बहरहाल, यह मेरे अनंत विश्वास को कुछ देर के लिए तोड़ जरूर देता है। इसीलिए तो मैं पक्के तौर पर आस्तिक भी नहीं कह सकता।

अंत में, इन शब्दों की परिभाषाओं में, मैं व्यर्थ में गुमराह हूं। मेरा आकलन तो समय करेगा। मेरे शब्दों का संसार करेंगे। और वो करेंगे जो इन्हें पढ़ रहे हैं। नहीं, वे भी नहीं कर सकते। क्योंकि हर एक की दृष्टि, मुझे समझने के लिए, हरेक स्थान व काल में, अलग-अलग स्तर पर, अपनी-अपनी तरह से देखेगी-पढ़ेगी। वहां मेरा आकलन नहीं होगा। वो तो उसका होगा जो आकलन कर रहा है। उस संदर्भित समय व काल का होगा। अतः मैं आज भी भ्रमित हूं कि ‘मैं क्या हूं?’ और मैं इस मायाजाल की मृगतृष्णा को ही जीवन मानकर जिये जा रहा हूं।