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चाहत जिंदगी है

कविताओं का जन्म दिल से होता है। अनायास। परिस्थितिवश। चंद शब्द, इनमें सौंदर्य भी होता है, जो गुनगुनाए जा सकते हैं, सारा संसार समेट लेते हैं। यही तो खूबसूरती है लयबद्ध पंक्तियों की। फिर चाहे वो शायरी हो, गीत हो, गजल हो। मैंने कविताएं बहुत कम लिखी हैं। अपनी युवा अवस्था में उपरोक्त शीर्षक वाली कुछ पंक्तियां उभरी थीं। यह सत्य है कि चाहत जिंदगी का अनिवार्य अवयव है, और उन दिनों मैं, स्वयं को किसी न किसी नयी चाहत के चक्कर में पाता। पहले अच्छे नंबर फिर अच्छा कॉलेज और फिर अच्छी नौकरी। इसके बाद फिर एक परिवार फिर पैसा और फिर साधन-सुविधा, चाहत-इच्छाओं की लंबी कतार थी। लेकिन उस दौरान बहुत अधिक पाने के लिए पागल हो जाने का चलन नहीं आया था। वैसे तो बाजार दस्तक दे चुका था और युवाओं में इसका प्रभाव था, मगर समाज में युगों से चली आ रही चाहत को नियंत्रित रखने व संतोष में ही सुख की भावना का चलन बरकरार था। बहरहाल, इन दो-तीन दशकों ने हजारों वर्ष के सिद्धांत को पूरी तरह मिटा दिया। अब चाहत ही जिंदगी है और अधिक से अधिक भोग में ही सुख। अनगिनत इच्छाओं, नयी-नयी जरूरतों, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा का युग है। तो क्या हमारे पूर्वज मूर्ख थे?

उदाहरणार्थ एक कल्पना करते हैं, हिन्दुस्तान के हर नागरिक के पास एक चारपहिया वाहन हो जाए, तो क्या होगा? अमूमन ऐसी चाहत आज हर व्यक्ति की बन गयी है। इस काल्पनिक परिस्थिति को प्राप्त करने के लिए मोटरकार निर्माता भी निरंतर लगे रहते हैं और भारी जोड़-तोड़ करते हैं। अर्धनग्न लड़कियों को कारों के इर्दगिर्द नचवाना, फिल्मी हीरो से परदे पर गाड़ी चलवाना, इन सब चित्र और रील को छपने व प्रदर्शित करने के लिए मीडिया के विज्ञापन में पैसा पानी की तरह बहाना। एकमात्र मकसद होता है कि अधिक से अधिक कारों की बिक्री हो। पैसा छप्पड़ फाड़कर आये। तो उपरोक्त काल्पनिक परिस्थिति अगर हकीकत बन जाए तो कार निर्माता कंपनियों की चांदी नहीं सोना हो जाएगा। ऐसा होने पर शायद वह हिन्दुस्तान के ही नहीं विश्व के सबसे अधिक धनी व्यक्ति घोषित कर दिए जाएं। लेकिन ऐसा होते ही उनके घर के बाहर कदम रखने की जगह नहीं होगी। आज के फ्लाई-ओवरों के जंजाल के ऊपर एक दर्जन और फ्लाई-ओवर बना देने के बावजूद सारी सड़कें, पार्किंग और मैदान ही नहीं, खेत-खलिहान में भी गाड़ी ही गाड़ी दिखाई देगी। पैदल चलने की स्थिति नहीं रहेगी। और जो गाड़ी जहां खड़ी है वहीं खड़ी रह जाएगी। हो सकता है कुछ दशक में खत्म होने वाला पेट्रोल-डीजल कुछ दिनों में समाप्त हो जाए। आसमान में धुआं ही धुआं हो। ट्रैफिक की दुर्गति के कारण शयनकक्ष और रसोई कार में उपलब्ध करना पड़े, और शायद शौचालय भी। बहरहाल, समाज व व्यवस्था की चिंता कार बेचने वाले को क्यूं होने लगी? वो तो चाहता है कि उसकी कार की बिक्री बढ़े, मांग बढ़े। बस। फिर उसका अंजाम चाहे जो भी हो।

यात्रा पर याद आया, हवाई सेवा प्रदान करने वाली कंपनियां भी यही चाहत रखती हैं कि अधिक से अधिक यात्री उनकी एयरलाइंस से यात्रा करें। कल्पना करें, जैसा कि हर आदमी के दिल में यह उम्मीद जगाने की कोशिश की जाती है कि वो विकास करे और इस विकास के नाम पर हवाई सफर करे। अगर यह सत्य हो जाता है तो हवाई अड्डों की स्थिति हमारे कस्बे-गांव के बस अड्डों से भी बदतर हो जाएगी। आसमान में जहाज ही जहाज दिखाई देंगे और वे एक-दूसरे से बचते भिड़ते और हमारे ऊपर गिरते हुए नजर आएंगे। इन उपरोक्त दोनों कल्पनाओं के संदर्भ में एक बात पक्की है कि जीवन व समाज की सामान्य व्यवस्था चरमरा जाएगी। जब पर्यावरण का अभी ये हाल है, प्रकृति के दोहन का परिणाम दिखने लगा है तो अति होते ही जीवन नरक हो जाएगा और पृथ्वी हमारे लिये कबाड़ हो जाएगी।

मगर उपरोक्त सरल तथ्य को समझना कौन चाहता है? उलटे बाजार की रफ्तार को गति दी जाती है। आज इच्छा और चाहतों का तो कोई अंत नहीं। क्योंकि इसे पैदा करने वाले हर व्यापारी की चाहत होती है कि उसका माल व सेवा अधिक से अधिक बिके। लेकिन इस चाहत के पेच को कोई समझ नहीं पा रहा कि यह सभी के दिमाग में एकसमान फिट होने लगा तो दिक्कत हो जाएगी। बार्डर पर राष्ट्र की सुरक्षा में तैनात सिपाही इच्छा करने लगे कि उसे भी पंचतारा होटल के मखमली गद्दे पर आराम से सोना है तो सीमाओं पर कौन लड़ेगा? पुलिस वाला चाहत करने लगे कि वह दीवाली-दशहरा अपने परिवार के साथ भरपूर मस्ती में बिताएगा, जो कि उसका नैसर्गिक-सामाजिक हक है तो फिर त्योहार पर अतिरिक्त चौकसी कौन करेगा? सरकारी अधिकारी व्यवसायियों को देखकर ललचाने लगें और उन्हीं की तरह पैसे में खेलने की इच्छा रखने लगें, जैसा कि आजकल बहुत देखने में आ रहा है, तो फिर समाज की व्यवस्था को दुरुस्त व निगरानी में कौन रखेगा? औरतों ने अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए स्वयं को व्यस्त कर लिया तो आदमी भी अपनी महत्वाकांक्षा की प्यास कम करने को तैयार नहीं। तो अब सवाल उठ रहा है कि घर में पल रहे बच्चों को कौन देखेगा? और फिर पालना-घर में पले ये बच्चे बड़े होकर अपनी इच्छाओं को जब साकार रूप देने के लिए अपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं तो बूढ़े हो चुके मां-बाप को कोई नहीं देखता। कौन देखेगा? युवा वर्ग? मगर क्यों? बूढ़े मां-बाप रोते हैं कि बच्चे देखते नहीं। मीडिया खबरें छापता है। साहित्यकार बूढ़ों की संवेदनाओं पर साहित्य रचता है। चिंतन होता है मनन होता है। धर्म कूद पढ़ता है। आत्ममंथन की बात होती है। चर्चा की जाती है, शिक्षा दी जाती है और इस रोग को भगाने के लिए तरह-तरह के इलाज किए जाते हैं मगर जड़ में कोई नहीं जाता। यही कारण है कि बीमारी बढ़ती जा रही है।

हर आदमी को सुंदर औरत चाहिए और हर औरत को सामर्थ्यवान पुरुष। यह एक सामान्य चाहत हो सकती है। मगर ऐसे में साधारण पुरुष-महिलाएं कहां जाएंगे? और अगर किसी कारणवश ये आमजन किसी भयंकर चाहत वाले के पल्ले बंध गए तो असंतोष, तकरार, मारपीट का कोई अंत नहीं। बात कहां जाकर रुके? गोरे होने की चाहत ने तो बाजार में अरबों रुपये खड़े कर दिये। सुदंरता के नाम पर पतले होने की चाहत को इतनी हवा दी गई कि हजारों-लाखों जिम और डायटीशियन पैदा हो गए। यह विज्ञापन भी चाहत पैदा करने में कमाल है। कुछ एक विज्ञापन में तो सरेआम ‘विश’ करने की बात की जाती है। यह अंग्रेजी ‘विश’ का रोग विष से कम नहीं। मगर बाजार व मीडिया, चाहत का रस, नशा बनाकर हमारे खून में डाल रहा है और जो अंत में जहर बनकर हमारी ही रगों में दौड़ रहा है। ज़हर भी थोड़ी मात्रा में दिया जाये तो शायद नशा छाया रहता है मगर आदमी जिंदा बचा रहता है। लेकिन यही नशा निरंतर और थोड़ा अधिक किया जाए तो मौत हो सकती है। और नहीं तो वो तिल-तिल करके जरूर मर जाता है। मगर बाजार को इससे क्या? वो तो दिन-रात हमें अधिक और अधिक ‘विश’ करना सिखाता है। यही तो कारण है कि एक आम व्यक्ति को भी बाजार हर एक चीज के लिए प्रेरित करता है। हर आदमी द्वारा हर एक उपभोग के सामान की विश करना ही आधुनिक जीवन का मूल सिद्धांत है। यह हमें सुबह उठते के साथ ही इस तरीके से रटा दिया जाता है कि मां-बाप हर बच्चे से शत-प्रतिशत अंक का ‘विश’ करते हैं। सभी अपने बच्चों को डाक्टर इंजीनियर बनाने की विश करते हैं। फिर यह डाक्टर इंजीनियर चाहे जिस भी कालेज से गिरते पड़ते बन जायें ये रातों रात लाखों-करोड़ों में खेलने का विश करते हैं। यहां से शुरू होती है भ्रष्टाचार की बीमारी। पेट में रोटी और जेब में कौड़ी नहीं है तो क्या हुआ, ठंडा पेय और चॉकलेट की इच्छा तो जगाई जा सकती है। दर-दर ठोकरे खाकर पसीने और धूल में फटे कपड़े मैले हो गए तो क्या है, डिटर्जेंट की सफेदी बरकरार होनी चाहिए। हिन्दुस्तान में हर मां को एक पुत्र की चाहत होती है। अब देखिए, इसके कारण लड़कियों की हत्याएं पेट में ही हो जाती है। हर नाचने वाला माइकल जैक्सन तो गाने वाला लता-किशोर बनने के चक्कर में पागल है। और प्रत्येक टीवी चैनल हिन्दुस्तान की आवाज बनकर शोर मचा रहा है।

यह सत्य है कि जीवन में चाहत के बिना सब सूना है। यह जीवन रस है। लेकिन अति हर चीज की खराब होती है और फिर ये तो मानवीय कमजोरी रही है। तभी तो सदियों से चाहतों को नियंत्रित रखने की बातें बताई जाती रही हैं। इंद्रियों को नियंत्रण में रखने के ज्ञान से शास्त्र भरे पड़े हैं। पिछली पीढ़ी तक घर के बड़े बुजुर्ग शांत व संतुष्टि में परम सुख के भावार्थ बचपन से पढ़ाते थे। रामचरित मानस पढ़-पढ़कर हमारा समाज आगे बढ़ा। कैकयी की इच्छा से प्रारंभ हुई रामकथा रावण की इच्छा पर ही समाप्त हो जाती है। कैकयी के कारण राम को वनवास मिला तो रावण की चाहत ने सोने की लंका को जलाकर राख कर दिया। सिकंदर ने विश्व विजय की चाहत जरूर की मगर फिर खुद ही खाली हाथ दिखाने की बात भी कर गया। अशोक की इच्छाओं ने युद्ध में भीषण नरसंहार किया, तो मुक्ति के लिए बुद्ध थे। धृतराष्ट्र के लालच और स्वार्थ ने दुर्योधन के माध्मय से महाभारत का युद्ध लड़ा और सब कुछ गंवाया, तो कमजोर भीष्म पितामह के सामने कृष्ण थे। मगर आज घर-घर पैदा हो रहे इन चाहतों के लिए पागल हो रहे नौजवानों को कौन रोकेगा जबकि सारी शक्तियां इन्हें बढ़ाने में लगी हैं। शकुनि मामा का रोल अदा करने वाले हर परिवार में हैं मगर पांडवों की तरह कौरवों को रोकने की शक्ति अब कहां? हमने इन लोक-कथाओं से सीख नहीं ली। पहले किसी एक राजा-महाराजा की चाहत के कारण युद्ध में सब कुछ तबाह हो जाता था। अब तो हर इंसान की चाहत को बढ़ा दिया गया है तो यकीनन हर घर में, हर आदमी के अंदर युद्ध होना है। ऐसे में फिर युद्ध के परिणाम की भीषणता अकल्पनीय होनी ही है।

बाजार इतिहास नहीं पढ़ता। न ही उसे इतिहास लिखना है। उसे तो माल बेचना है। कौन नहीं जानता? लेकिन आदमी यह मानना नहीं चाहता कि उसकी सभी चाहत कभी पूरी नहीं हो सकती। अगर ऐसा होता तो फिर वो स्वयं एक सर्वशक्तिमान सृष्टि की परिकल्पना नहीं कर लेता। इतिहास ही नहीं पौराणिक कथाएं भरी पड़ी हैं। असुरों का हर काल, हर युग में इस चाहत के कारण ही सर्वनाश हुआ। आज का आदमी यह नहीं समझ पा रहा कि यह चाहत ही अपने आप में शैतान है जो हमारे अंदर बैठे इंसान को भी मार देता है। आदमी को हैवान बना देता है। ऐसे में जिंदगी कहीं पीछे छूट जाती है। इस चाहतभरी दुनिया में एक बार जिंदगी की चाहत करके देखिए। यकीन मानिए फिर किसी और चाहत की इच्छा नहीं रह जाएगी।

वर्तमान युग के लिए आज के शीर्षक के आगे की एक पंक्ति लिखना ही पर्याप्त होगा। ÷चाहत जिंदगी है, जिंदगी की चाहत नहीं’। इसके भावार्थ के आगे कुछ और लिखने की जरूरत नहीं। है न कविता की कुछ पंक्तियों का कमाल!!!