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रिश्तों का अंग्रेजीकरण

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली और संस्कारधानी जबलपुर के बीच में तीव्रतम ट्रेन से भी एक रात से कुछ अधिक का लंबा सफर है। दोनों अपने आप को इन नामों से पुकारे जाने में फख्र महसूस करते हैं। करना भी चाहिए। वैसे तो दोनों शहरों की जीवनशैली के बीच की दूरी आज भी देखी और महसूस की जा सकती है। आधुनिक संचार-क्रांति ने इन दूरियों को कम तो किया है मगर खत्म नहीं कर पाई। यह हो भी नहीं सकता। चूंकि समय का कालचक्र और इंसान की फितरत यह होने नहीं देगी। फैशन की दुनिया ने सौंदर्य प्रसाधन तो तमाम बेचे मगर क्या कोई इसे लगाकर स्वप्न-सुंदरी बन पाता है? और फिर सभी फिल्मी हीरोइन इतने सारे फेस पैकअप के बावजूद एक समान तो नहीं लगतीं? चेहरों पर मेकअप कितना भी हो जाए फिर भी प्रत्येक इंसान की पहचान बनाने वाले ने ही मूल रूप से अलग-अलग कर रखी है। अमूमन इसका अहसास होता है और अभिमान भी। होना भी चाहिए। फिर शहर इससे अछूते कैसे रह सकते हैं? वो भी बाजार के प्रवाह के बावजूद अपनी विशिष्ट पहचान बचाए रखने में अब तक कामयाब हैं।

इस बार जबलपुर ट्रेन से गया था। सुबह-सुबह सामने की सीट पर विराजमान सज्जन की भारी आवाज ने मुझे नींद से जगाया था। वो मोबाइल से किसी को कह रहा था- पहले मैडम को अस्पताल दिखा ला, हमार ट्रेन तो लेट है, दोपहर तक पहुंचेगी। ट्रेन के लेट होने का तो मुझे भी पता था, तभी तो मैं उठ नहीं रहा था, लेकिन सामने वाले ने अपने बोलने की स्वतंत्रता का भरपूर उपयोग करते हुए यह व्यक्तिगत सूचना पूरे डिब्बे में सार्वजनिक कर दी थी। उसके बोलने के ढंग और आवाज से कुछ-कुछ अंदाज तो लग गया था फिर भी अधखुली आंखों से देखा तो वो अधेड़ उम्र का ही निकला था। मन में प्रश्न उभरा था कि स्थानीय व्यापारी होना चाहिए? दुकानदार या आढ़तवाला जो भी हो, वातानुकूलित डिब्बे में सफर कर रहा है तो पैसे वाला तो होगा ही? नहीं-नहीं ठेकेदार भी हो सकता है? यही क्यों, किसी छोटी-मोटी इंडस्ट्रीज का मालिक भी हो सकता है? यकीनन नौकरी वाला तो नहीं है चूंकि अगला फोन किया जा रहा था- का किशन, दुकान खोल लिये हो कि नहीं? हम ड्राइवर को फोन कर दिये हैं, जरा मैडम की तबीयत ठीक नहीं, अस्पताल दिखा लाएगा। हमार ट्रेन तो लेट पर लेट हो रही है।

जबलपुर के आसपास का सैकड़ों मील का क्षेत्र आधुनिकता की अंधी-दौड़ में तीव्रता से दौड़ तो रहा है मगर अभी भी कुछ देसी रंग-ढंग दिख जाता है, बोली में, रहन-सहन में, खान-पान और विचारों में। ये मुझे आज भी अपनी ओर आकर्षित करते हैं और अपनेपन का अहसास कराते हैं। मगर यहां मैं बहुत देर तक उपरोक्त सज्जन के ‘मैडम’ शब्द से भ्रमित था। इसकी ‘मैडम’ कौन हो सकती है? समझना मुश्किल था। वो तो उसने घर फोन करके मेरे लिए यह मुश्किल आसान कर दी। जब उसने अपने बेटे से कहा कि मां से कहना हम गाड़ी भिजवा दिए हैं, अस्पताल से दवा ले आए। सुनकर मेरी नींद पूरी तरह से गायब हो चुकी थी, तो यह है इसकी ‘मैडम’!

वह यकीनन व्यापारी और अधिक शुद्ध शब्दों में सेठ था और कुछ वर्ष पूर्व तक नहीं तो कम से कम उसके पिता अपनी पत्नी के लिए ‘सेठानी’ शब्द कहा करते होंगे। ‘मालकिन’ भी हो सकता है। मेरे समाजवादी दोस्त इन शब्दों में पूंजीवाद की गंध ढूंढ़ेंगे, लेकिन इसमें देशी पूंजीवाद के साथ-साथ आदर व प्रेम और अपनापन भी था। अब इस ‘मैडम’ शब्द में क्या उन्हें भाषा के साम्राज्यवाद की बू नहीं आती? यह भी तो पश्चिमी संस्कृति में पले-बढ़े पूंजीवाद से उत्पन्न शब्द है। हां, आधुनिक पीढ़ी मेरी उपरोक्त व्याख्या को, मेरा पिछड़ापन घोषित करके मुझे दकियानुसी सोच का व्यक्ति करार दे सकती है। लेकिन मैं सिर्फ ‘मैडम’ कहने मात्र से आधुनिक हो जाने की सोच से भ्रमित हूं। और यहां अपने अंदर उठ रहे विचारों से इत्तफाक रखता हूं।

विगत सप्ताह एक प्रेमी पाठक का फोन आया और वह मेरे लेख के बारे में चर्चा करने लगा। वह एक साधारण-सा युवक चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी है। वो विचारों से समृद्ध, उत्साही और मुझे प्रभावित करता है। मुझे उससे बात करने में खुशी मिलती है। अचानक उस दिन कह पड़ा कि उसने आज का लेख मैडम को पढ़ने के लिए दिया है। मैं बहुत देर तक यही समझता रहा कि वह शायद अपनी मालकिन का जिक्र कर रहा है। बाद में पता चला कि वो अपनी धर्मपत्नी के लिए ‘मैडम’ शब्द का इस्तेमाल कर रहा था। ओफ! मैं एक बार फिर आहत हुआ था, ये गृहस्वामिनि उर्फ घरवाली, मैडम कब से बन गयी?

अंग्रेजी और अंग्रेजों के बारे में मेरी ज्ञान की सीमा है लेकिन इतना जरूर पता है कि पूर्व में ‘मैडम’ शब्द अंग्रेजों की ‘मेम’ के लिए प्रयुक्त होता। यह अभिजात्य वर्ग की महिलाओं के लिए भी प्रयोग में लाया जाता था। अमूमन गुलाम देश में, शासक वर्ग की महिलाएं ‘मैडम’ होतीं। ऑफिस में बड़े अधिकारी की पत्नी या फिर किसी ऊंचे ओहदे वाली नारी को भी इस शब्द से संबोधित किया जाता। यकीनन ये हमारी गुलाम संस्कृति के प्रतीक रहे हैं। सवाल उठता है, आजाद होने के पश्चात क्या हमें इस प्रथा को स्वीकार करना चाहिए था? कहीं ये हमारी कुंठाएं तो नहीं बन गई थीं, जो जाने-अनजाने हमने स्वतंत्र होने का जय घोष करने के लिए और स्वयं को शासक प्रमाणित करने के लिए घर-घर मैडम शब्द बोलना शुरू कर दिया? क्या वास्तव में विकसित और आधुनिक कहलाने के लिए, इन शब्दों की अनिवार्यता है? क्या हम ऐसा करके वास्तव में स्वतंत्र हो जाते हैं? क्या ऐसा कह लेने मात्र से वर्गों में बंटा हमारा समाज एकरूप हो जाता है? कहीं ऐसा तो नहीं कि उलटा हम सांस्कृतिक रूप से गुलाम हो गए हों? ये अंतर्द्वंद्व मेरे मन-मस्तिष्क में उथल-पुथल मचाने लगा था। और मेरे अंतर्मन ने इन शब्दों का विरोध करना प्रारंभ कर दिया।

भारतीय संस्कृति में हर रिश्ते अपने नाम से भी गर्माहट-प्रेम-अपनत्व और खास भावार्थ समेटे रखते थे। लोग अपनी पत्नी के लिए पप्पू-गुड्डू की मां से लेकर भाभी-चाची-तायी-मामी-मौसी-बुआ आदि शब्दों का प्रयोग करवाते थे। इसमें कहीं न कहीं रिश्तों की सुगंध और प्रेम का स्पंदन होता और सुनने वाला तुरंत जुड़ जाता। मोहल्ले की जगत्‌प्रसिद्ध मौसियां हुआ करतीं और मायके में दीदी व भैया बोलना आम होता था। अब सभी लड़कियों से लेकर महिलाएं बच्चों की आंटी बन गई हैं और हर आदमी की पत्नी ‘मैडम’। बात इस हद तक चली गई कि सोलह-सत्रह की उम्र पार करने वाली हमारे घर की बेटियों, बहनों और भगिनियों को भी दुकान में सेल्समैन ‘मैडम’ शब्द से स्वागत करते हैं। एक तरफ आज की पीढ़ी भी इन शब्दों से ही अपने बड़े होने का गरूर पालती है, वहीं अधेड़ और बुजुर्ग व्यापारियों द्वारा इन शब्दों का उद्बोधन बाजार और व्यावसायिकता की मजबूरी के अतिरिक्त और कुछ नहीं। हां, मुझे इस बात का अनुभव नहीं कि सत्रह-अठारह साल के लड़कों को दुकानों में क्या कहा जाता है? अगर ‘बाबा’ कहते हों तो लड़के स्वीकार नहीं करेंगे और ‘सर’ कहने पर शायद हंसी का पात्र न बन जाएं। न जाने क्यूं ‘बेटे’ शब्द की मिठास का कानों को अब भी इंतजार रहता है। पता नहीं औरतें अपने आदमियों के लिए क्या आधुनिक शब्द प्रयोग करती हैं, लेकिन न तो ये ‘सर’ बन पाए और न ही ‘लॉर्ड’ बन पाए। कहीं पर ‘मिस्टर’ बनकर रह गए तो कहीं पर सीधे नाम से पुकारे जाते। तो फिर ‘ए जी’ ‘ओ जी’ से लेकर लालाजी, सेठजी, सुनो जी, का अदृश्य प्रेम समाप्त होना ही था। न ही बबलू के पापा और छोटू के दादा पुकारे जाते हैं। न ही अन्य द्वारा भैयाजी, लल्लाजी, देवरजी, जेठजी कहे जाते। मुश्किल तो तब होती है जब परिवार में कोई कार्यक्रम हो और रिश्तेदार इकट्ठा हों तो अंकल और आंटी कहने पर मायके और ससुराल वाले दोनों मुड़कर देखते हैं। इस मुसीबत से छुटकारा पाने के लिए ही शायद अब रिश्तेदार घरों में इकट्ठे ही नहीं होते। भविष्य में, आने वाली पीढ़ी में, चाचा-चाची, ताऊ-तायी या बुआ-फुफा और मामा-मामी के अर्थों को बच्चे डिक्शनरी में ढूंढ़ने लगें तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। आज के कई बच्चों को देखकर दुःख होता है कि उन्हें नाना-नानी और दादा-दादी का असीम-प्रेम, एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न, मिल ही नहीं पाया और अगली पीढ़ी इस प्रेम-रस से वंचित हो रही है।

हमारे घर की बहुएं ‘डॉटर-इन-लॉ’ बन गयीं। अंग्रेजी भाषा की कोई गलती नहीं है। वो वहां की सभ्यता और संस्कृति को बड़ी सरलता व सत्यता के साथ पूरे भाव से प्रस्तुत करती है। उनकी अपनी जीवनशैली है। वहां हर संबंध शादी के बाद कानून से नियंत्रित होते हैं। फादर-इन-लॉ, मदर-इन-लॉ, ब्रदर-इन-लॉ, सिस्टर-इन-लॉ, ये सारे कानून से बंधें हैं। और इसीलिए तो वहां इन रिश्तों से प्रेम और अपनेपन की अपेक्षा नहीं की जाती। बहुएं ससुराल में नहीं रहतीं उनका अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। एकल परिवार है। और इसलिए ये पारिवारिक संबंध पति-पत्नी के बीच तलाक के होते ही मिनटों में समाप्त भी हो जाते हैं। जबकि हमारी संस्कृति में शादियां एक आदमी और एक औरत के बीच ही नहीं दो खानदानों के बीच हुआ करती थीं। घर की बहू बेटी मानी जाती थी। वो देवर-ननद ही नहीं पूरे मोहल्ले की नयी पीढ़ी की भौजाई होती। साला-साली व जीजा के संबंध विशिष्ट होते। चचिया-ससुर व ममिया-ससुर से लेकर बड़ी सास, छोटी सास, जेठानी और देवरानी के बीच में पारिवारिक जीवन खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ फलता-फूलता। एक लंबा-चौड़ा कुनबा उसकी शक्ति और पहचान होती। मगर ‘मैडम’ शब्द से विस्तारित होकर ‘इन-लॉ’ की भावना से प्रेरित शब्दों ने हमारे कुटुम्बों के बीच में जाने-अनजाने ही दीवारें खड़ी कर दीं। न तो बहुएं अब अपने पति से मनमुटाव या झगड़ा होने पर सास-ससुर और जेठ-जेठानी का संरक्षण प्राप्त कर पातीं न ही बुजुर्ग अगली पीढ़ी से आदर व प्रेम प्राप्त कर पाते। इस एक अंग्रेजी के शब्द ने हमारी सामाजिक संरचना को बदलकर रख दिया है। इंसान को इंसान से दूर कर दिया है। हमारे सैकड़ों संबंधों को नेस्तनाबूद कर दिया है। कहने वाले फिर भी कहेंगे कि यह हमारे भविष्य और आधुनिकता की नई राह है। जो भी हो मगर इसकी कीमत हमने भारी चुकाई है।