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और वो चुपचाप चले गए

पिछला शनिवार अनमना-सा बीता। खालीपन का अहसास हुआ था। मंजिल न हो तो रास्तों पर भटकना कहा जाता है। यूं ही सड़कों पर समय बर्बाद करने का मन न किया तो घर वापस लौट आया था। और फिर दिनभर उदास रहा। वरना पूर्व में सुबह-सुबह सबसे पहले किताबों-पत्रिकाओं की दुकानों में पत्र-पत्रिकाओं को उलट-पलट कर देखना और किसी मन-पसंद पुस्तक की तलाश करना। नये विषय की रचना मिल जाने पर भी पत्रिका/किताब अक्सर खरीद लेता और फिर सीधे डॉ. संसार चंद्र के घर के लिए निकल पड़ता। घंटे से दो घंटे का समय अमूमन उनके साथ बिताया करता था। और दोपहर तक घर वापसी। भोजन के समय तक तो पहुंच ही जाता। मगर इस शनिवार उनके घर नहीं गया था। जा कर क्या करता? चूंकि वो तो वहां अब थे नहीं। सदैव के लिए कहीं जा चुके थे। कभी न लौटने के लिए।

डॉ. संसार चंद्र लगभग 94 वर्ष के हो रहे थे। पूरे हिन्दुस्तान के संदर्भ में दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता मगर उत्तर भारत के जीवित साहित्यकारों में शायद सर्वाधिक वयोवृद्ध थे। मूलतः व्यंग्यकार। मगर उनकी रचनाओं को आम व्यंग्य नहीं कहा जा सकता, भाषाविद् जो थे। हिन्दी, पंजाबी, अंग्रेजी, उर्दू, डोगरी के साथ-साथ संस्कृत के महान विद्वान। ऐसे में भाषा का गंभीर होना तो स्वाभाविक है ही। वैसे भी उस युग में हल्केपन की संभावना कम ही होती थी। मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं कि रचना क्लिष्ट हो जाए। सरलता व सहजता उनके सृजन का सौंदर्य होता। और फिर वो ठहरे पुराने जमाने के अपने इलाके के सर्वाधिक संपन्न व शिक्षित परिवार से। तब संस्कार परिवार ही नहीं समाज की भी धरोहर हुआ करती थी। इतना लंबा जीवन भी उन्होंने यूं ही नहीं काट दिया, निरंतर रचनाधर्म में लीन रहे। यह उनके जीवन की औषधि थी। रचनाकार भी ऐसे कि दर्जनों पुस्तकें प्रकाशित। कई पुरस्कार/सम्मानों से अलंकृत तो हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद स्वयं ‘विद्या वाचस्पति’ की उपाधि प्रदान करने के लिए उनके पास आया। पेशे से वैसे तो शिक्षाविद् मगर सेवानिवृत्ति के बाद ज्योतिष के रूप में अधिक लोकप्रिय। अम्बाला, चंडीगढ़ और जम्मू विश्वविद्यालय में जब तक प्रोफेसरी की तो दसियों पी.एचडी. व डी.लिट. रिसर्च स्कॉलर समाज को दिए और ज्योतिषी इतनी सफल की तीस वर्ष लगातार एक प्रतिष्ठित अखबार में भविष्यवाणी का दैनिक व साप्ताहिक कॉलम लिखा। बरसात, गर्मी और ठंड के आने में देर-सवेर हो सकती है लेकिन उनका लिखा कॉलम अखबार के दफ्तर में निर्धारित समय पर पहुंच जाता था। अंतिम दिनों तक।

विशालकोठी के प्रांगण में मुख्यद्वार के ठीक आगे साफ-सुथरी खुली-सी जगह, उसके साथ ही लगा सामने एक अच्छा-खासा बड़ा कमरा। इसी में बरसों से रोज सुबह दस से सायं पांच बजे तक यह शख्स पूरी ऊर्जा के साथ तैयार होकर नियमित बैठता और अध्ययनरत रहता। कमरे में चारों ओर तरतीब से रखी सैकड़ों दुर्लभ पुस्तकें। और बीच में उनकी टेबल और बैठने के लिए साधारण कुर्सी। बगल में टेलीफोन। आसपास कागज, पेन, स्टेपलर, रबड़-पेंसिल, स्केल, पंचांग, ढेर सारी पत्रिकाएं और कॉल बेल। पीछे की लकड़ी की रैक में सजी हुई ट्रॉफी, शील्ड और फ्रेम किए हुए प्रशस्तिपत्र। सामने आगंतुक के लिए छह कुर्सियां। लोगों का आना-जाना दिनभर लगा रहता। अधिकांश इसमें दुखी और भविष्य को लेकर चिंतित होते। कुछ बनने की चाहत में तो कई अपनी पदोन्नति को लेकर परेशान, माता-पिता अक्सर अपने बेटे-बेटियों की शादी व पारिवारिक कलह के निराकरण के लिए आते। दुनिया में दुःख की कोई कमी नहीं और चाहत की कोई सीमा नहीं। शायद यही कारण है कि पूछने वालों का तांता लगा रहता। सभी को ग्रह-नक्षत्र व जन्म के समय, तिथि, स्थान के आधार पर उचित राय दी जाती और बचाव में धार्मिक कर्मकांड का रास्ता भी बताया जाता। आने वालों में मंत्री और कई सेठ भी होते। इस कार्य में मिलने वाले पैसे को गुरु-दक्षिणा भी कहा जा सकता है। और इसी से उनका दैनिक खर्चा चलता। इस बात का जिक्र वो अक्सर किया करते थे कि उन्हें पेंशन नहीं मिलती है। और उनके मतानुसार ज्योतिषी से ही उनका जीवनयापन चल रहा था। दुःख से कहते कि लेखन के द्वारा एक परिवार का पालन-पोषण संभव नहीं। उनसे मिलने के लिए आने वालों में लेखक कम ही होते। और जो आते भी वो व्यक्तिगत भावनाओं व संबंधों की खातिर या ज्योतिषी पूछताछ के उद्देश्य से। बहरहाल, न जाने क्यों, उन्हें रचनाकारों का इंतजार रहता और किसी साहित्यकार के आने पर उनकी आंखों में चमक देखी जा सकती थी। बातचीत का उत्साह तो फिर दोगुना हो ही जाता। याददाश्त इतनी जबरदस्त कि हर संदर्भ पर संस्कृत का श्लोक और किसी भी मुद्दे पर मन के चंचल होने पर शायरियों की बौछार कर देते। सुनकर मैं अचंभित, प्रभावित और साथ ही उत्साहित भी होता।

पिछले तीन वर्षों में, जब से चंडीगढ़ आया हूं, उनके साथ धीरे-धीरे कैसे संबंध आगे बढ़ते चले गए, पता ही नहीं चला, याद भी नहीं, मगर तकरीबन हर शनिवार दोपहर की मुलाकात का सिलसिला दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुका था। एक कप चाय, गर्मी में कभी-कभी नीबू-पानी और साथ में नमकीन। कोई न कोई मिठाई भी अक्सर होती। जो उनके चाहने वाले उन्हें भेंटस्वरूप दे जाते। उन्हें याद रहता था तभी तो मेरे पहुंचते ही किसी विशेष मिठाई की उपलब्धता होने पर उसे जरूर मंगवाते। वो यह जानते थे कि मीठा मेरी कमजोरी है। और फिर पारिवारिक नौकर उसे प्रेमपूर्वक परोस जाता। शूगर की बीमारी के बाद भी वो अति उत्साह में कभी-कभी स्वयं भी ग्रहण करते। मैं उनकी उम्र से आधे से भी कम का था। लेकिन चर्चा के दौरान किसी मुद्दे पर कब नोकझोंक बहस में परिवर्तित होकर तेज हो जाती, पता ही नहीं चलता। और ये रिश्ता बिना किसी परिभाषा के मजबूत होता चला गया। राजनीति की वर्तमान अवस्था पर उन्हें बेहद तकलीफ होती। उधर, साहित्यकारों की राजनीति पर उन्हें क्रोध आता। और इन बातों पर उनका आक्रोश खुलकर प्रकट होता। इस उम्र में भी वह एक अच्छे पाठक सिद्ध होते और रचनाओं को गंभीरता से पढ़ते। वो इस बारे में ईमानदार भी थे और बिना पढ़े किसी भी टिप्पणी से बचते। मेरी एक-दो रचनाएं ही उन्होंने पढ़ी थीं जो उन्हें बेहद पसंद आई थीं शायद तभी वह मेरे हर कार्यक्रम में अवश्य आते।

बुजुर्गों के पास ज्ञान व अनुभव का भंडार होता है। साथ ही वह अध्यापक के साथ चिंतक भी हो तो आपका सर्वश्रेष्ठ पथ-प्रदर्शक बन सकता है। वह एक खुली किताब ही नहीं जीवनशास्त्र बन जाता है। जीवन के उतार-चढ़ाव व्यक्ति-समाज-राष्ट्र को समग्र रूप से परिभाषित करवाते हैं। जब तक सांस है जीवन एक संघर्ष है। किसी भी वृद्ध को देखकर यह सत्य समझ तो आता है मगर कड़वा होने के कारण निगला नहीं जाता। और युवा अवस्था इसे नजरअंदाज करने की कोशिश करता है। एक बार दोपहर उनके घर पहुंचा तो हमेशा की तरह कुछ लिख रहे थे मगर चेहरे पर थोड़ी चिंता दिखाई दी। पूछा तो पता चला कि तबीयत खराब है और डाक्टर के पास जाना है। घर में नौकर नहीं था। मैंने साथ चलने के लिए कहा तो वो तुरंत खड़े हुए थे। देखा तो उनके पायजामे में खून के दाग थे। शायद मूत्र के साथ रक्त निकल रहा था। उसी अवस्था में इतनी उम्र में भी, खुद चलकर गाड़ी तक गए और फिर डाक्टर से मिलकर पूरी जानकारी दी। इलाज करवाकर बडे+ आत्मविश्वास के साथ वापस घर आए थे। देखकर कई दिनों तक मैं हैरान रहा था। अंत में यही समझ आया था कि विपरीत परिस्थितियों मे भी, फिर चाहे वो किसी भी प्रकार की हों, जूझना और अस्तित्व के लिए लड़ना ही जीवन है। बस छोटा-सा संदेश मिला था। छोटे से जीवन के लिए इतना ही ज्ञान काफी है। चंडीगढ़ ही नहीं देश के बड़े शहरों की कई विशाल कोठियों में अकेले बूढ़ों या वृद्ध दंपतियों को रहते देखा जा सकता है। कारण चाहे जो भी हो, यहां वो संदर्भ नहीं, मगर आधुनिक जीवन की नियति देखकर दुःख, आश्चर्य, वैराग्य तो कभी आक्रोश उत्पन्न होता है। यह हमारी नयी सामाजिक व्यवस्था का प्रतिफल है। परिवर्तन समाज ही नहीं सृष्टि की नियति है लेकिन उनके दुष्परिणामों का यथाउचित निराकरण भी समाज की जिम्मेवारी है जो आधुनिक काल भूल बैठा। यह इस युग की सबसे बड़ी त्रासदी है। इन सबके साथ भी जीना तो है ही, और अगर उसे एक चुनौती के रूप में लिया जाये तो? प्रभाव डालता है। उनकी आवाज में इतनी खनक थी कि अच्छे-अच्छे जवान-पहलवान चित्त हो जाएं। जिसने अपनी जवानी में ही अपनी आंखों के सामने अपने घर-परिवार को बर्बाद होते देखा हो, मां-पिता-बहन को खो दिया हो, वो मजबूत तो हो ही जाएगा। वो अपनी पत्नी और दो साल के एक बेटे के साथ रातों-रात किसी तरह बंटवारे के दौरान भागकर हिन्दुस्तान आए थे। उनके मुख से विस्तारपूर्वक उनकी युवावस्था की यह कहानी मैंने कई बार सुनी थी और जाने-अनजाने ही उस दौर की राजनीति, सामाजिक और आर्थिक पहलुओं से ही नहीं पूरे एक काल से जुड़ गया था। संघर्ष सिर्फ बुजुर्ग नहीं युवा भी करते हैं। और जो निरंतर आगे बढ़ना जानते हैं वो हर मोड़ पर सफल होते हैं। कालांतर में उनका मूल नगर मीरपुर (वर्तमान में पाक अधिकृत क्षेत्र में) अब एक बांध में डूब चुका है। इसका दुःख उनकी आंखों में तैरता रहता था। अपनी मातृभूमि से इतना लगाव! आश्चर्य होता है। अब उस दौर का एक जीवन ही नहीं एक संपूर्ण काल इतिहास के पन्नो में समा गया।

उनमें अंत तक बहुत कुछ करने की चाह थी। दर्जनों पुरस्कारों के बाद भी ख्वाहिशें थीं। लोग पीठ पीछे बातें बनाते। मगर यह भूल जाते कि जिंदा रहने के लिए जीवन के अवयव जरूरी हैं। उनकी एक बात के पीछे छिपा दर्द मैंने कई बार पाया था। कहा करते थे कि मुझे दुःख है कि मेरे जीते जी मेरी किताबें समाप्त हो रही हैं, रचनाएं विलुप्त हो रही हैं। मैं उन्हें समझाने की कोशिश करता कि शायद यही जीवन का चक्र है। लेकिन उनकी आंखों के शून्य में खुद खो जाता। हर घर में बुजुर्ग होंगे और उपरोक्त दृश्य या उससे थोड़ा हटकर, कुछ न कुछ सभी के साथ होगा। कहानी अलग-अलग हो सकती है मगर मूल में आत्मा एक ही होगी। आज मैं डॉ. संसार चंद्र को, सिर्फ शनिवार ही नहीं, हर पल महसूस कर सकता हूं। उसी तरह से आप भी अपनो को याद करते होंगे। आज मुझे इस बात का सुकून है कि मैंने उनके साथ एक लंबा समय बिताया। कम से कम तब जब उन्हें इसकी सर्वाधिक आवश्यकता थी। आप भी अपने बुजुर्गों के साथ, यथासंभव समय बिताएं, वरना कब ये चुपचाप चले जाएंगे, पता ही नहीं चलेगा।