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नये शहर की कल्पना

विगत मास छत्तीसगढ़ राज्य की राजधानी रायपुर जाना हुआ। यहां तकरीबन दस वर्ष पूर्व आया था। इस दौरान, स्वाभाविक रूप से बहुत कुछ बदलना था और बदला भी। प्रमुख कारण एक ही था, नये राज्य की नयी राजधानी, नये राजनैतिक शक्ति के केंद्र के साथ-साथ आर्थिक उपलब्धता एवं स्वतंत्रता, अतः वो सब तो होना ही था जो दिखाई दे रहा था। चारों ओर सीमेंट, ईंट, लोहा, चूना, रेत-बजरी का बिखरा होना, अर्थात निर्माण कार्य जोरों पर है। जहां देखो वहीं कुछ न कुछ नया बन रहा है। इस दौरान दो अच्छे होटल भी खुल गए। बाहर से आने वालों को आधुनिक सेवाएं उपलब्ध हो गईं। पता नहीं आज का आदमी घर से बाहर निकलकर भी घर जैसा ही क्यूं खोजता व चाहता है? शहर के एक छोर पर बन रहे नये अखिल भारतीय चिकित्सा संस्थान के विशाल प्रांगण को भी देखने का मौका मिला। कॉलेज का मित्र, अशोक खंडेलवाल, इसका काफी बड़ा हिस्सा बना रहा है। पिछले कुछ वर्षों में वो एक बड़ा बिल्डर बन चुका है। अच्छा पैसा, बड़ी गाड़ी, आलीशान मकान, अपने क्षेत्र की तरह उसने भी प्रगति की है। मेहनती और साफ छवि देखकर खुशी होती है। सड़कें व संचार के अन्य माध्यम भी विकसित हुए हैं। और खाने-पीने में पिज्जा, ब्रेड, बर्गर और नूडल नुक्कड़ों व चौराहों पर मिलने लगे। आबादी को तो बढ़ना ही था और शहर चारों ओर फैल गया। अपनी रफ्तार से और अपने हिसाब से। थोड़ी दूर पर एक नया शहर बसाने की योजना है, ऐसा पता चला। आते-जाते वहां भी निगाह पड़ी और कल्पना करने लगा कि कंक्रीट का एक और जंगल मेरी अगली यात्रा तक शायद खड़ा हो जाए।

पश्चिमी व्यंजन या आधुनिक वातानुकूलित कमरे मेरी प्राथमिकता नहीं थे, मैं छत्तीसगढ़ को खुली निगाह से देखना चाहता था, सो इसीलिए पूरे तीन-चार दिन का कार्यक्रम बनाया था। सोचा था कि यह काफी होगा। हम भारतीय अच्छे पर्यटक कभी भी नहीं रहे। तभी तो दरबारी कविता को छोड़कर हमारे पास कोई लिखित इतिहास नहीं। और हमें चीनी पर्यटकों द्वारा लिखे गए इतिहास पर ही विश्वास करना पड़ता है। यही दुर्गुण हम में आज भी है। किसी भी स्थान पर जाकर हम कुछ पल के लिए ठहरते नहीं। सरसरी निगाह से देखा, मत्था टेका और तुरंत लौटते हैं। रायपुर जाने के बाद इस बात का अहसास पुख्ता हुआ। संशय, जो सच हुआ कि क्या मैं इतने कम समय में इतनी प्राचीन संस्कृति और सभ्यता को देख पाऊंगा? सच है, ऐसा क्षेत्र जहां दो सौ पचास से तीन सौ मिलियन वर्ष पूर्व गौंडवाना चट्टान की निर्माण प्रक्रिया में कोयले की परत बनना प्रारंभ हो चुकी थी। दुनिया का प्राचीनतम भूखंड, आज भी चारों ओर फैले घने जंगल और घाटियों के कारण दुनिया की पहुंच से दूर है। और इसलिए अनछुआ है और शायद बचा भी है। शायद यही कारण भी है जो अति प्राचीन गौंड आदिवासी अपनी पुरानी सभ्यता के साथ यहां आज भी रह रहे हैं। वैसे तो इतने बीहड़ जंगलों में आधुनिक मानव बिना किसी उद्देश्य से नहीं जाएगा। ऊपर से जहां पर चारों ओर गर्मी में रेगिस्तान जैसा महसूस होता हो मगर बरसात की बूंदें गिरते ही ऐसी हरियाली छा जाती हो मानो रातों-रात किसी ने अपने वस्त्र बदल लिये हों। वो तो खनिजों का एक बहुत बड़ा प्रतिशत, भारतीय संपदा का 13 प्रतिशत यहां उपलब्ध है। और आदमी इसी के चक्कर में यहां पहुंचता है। क्या यहां के स्थानीय निवासी- गौंड, कमार, बैगा, हल्बा, भतरा, मारिया और मुरिया को इस बात का अहसास नहीं? बिल्कुल है। और युगों से है। लेकिन हीरे से अधिक मूल्यवान इस रत्न भंडार के बावजूद आदिवासियों ने अपने जीवन पद्धति में कोई खास परिवर्तन नहीं किया। वे इस प्रकृति के साथ तो जीते हैं मगर उसका दोहन नहीं करते। प्रकृति प्रेमी हैं। मगर पता नहीं हमें क्या तकलीफ है कि हम उन्हें इस तरह से जीने भी नहीं देते। और मुख्यधारा में लाने के नाम पर प्रकृति से दूर अपने जैसा बना देना चाहते हैं।

छत्तीसगढ़ नाम ऐतिहासिक और प्राचीन है। अब ये नामकरण छत्तीस गढ़ों से हुआ या छत्तीस घरों के नाम पर? क्या पता? कुछ लोग इसे स्थानीय राजा छेदीस के गढ़ों से जानते हैं। फिलहाल पहले तो पढ़कर यकीन नहीं था मगर देखकर अचरज होता है कि जहां आज भी पचास प्रतिशत घना जंगल हो, महानदी, जांक, रिहंद, इंद्रावती और सैकड़ों झरने हों, गुफाएं हों और दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों-घाटियों में अनगिनत जानवर हों, वहां कोई सभ्यता कैसे पनप सकती है? मगर इतने लंबे अरसे में, यहां इतिहास ने अंदर बहुत कुछ रहस्य के रूप में संभालकर रखा है। यह सुनकर हैरानी होती है कि पाषाण युग के अवशेष भी यहां मिले हैं। स्थानीय राजाओं की एक लंबी वंशावली और उसकी कई कहानियां हैं। बौद्ध धर्म की उपस्थिति यहां मिल जाएगी। क्षत्रियों और स्थानीय आदिवासियों की वीरगाथाएं हैं तो मुगलों का भी नाम यहां के राजाओं के साथ आता है। और फिर मराठों ने तो अंग्रेजों के पूर्व यहां कई बरस अधिकार जमाया। बात यहीं खत्म नहीं हो जाती, राष्ट्रीय स्वतंत्रता के स्वर में भी यह क्षेत्र पीछे नहीं दिखाई देता। स्थानीय लोग इसके लिए निरंतर संघर्षरत रहे। कह सकते हैं कि वो तथाकथित भौतिक आधुनिकता से तो दूर रहे मगर अपनी स्वतंत्रता के अहसास से दूर नहीं। तभी तो 1857 में जमींदार नारायण सिंह ने स्थानीय लोगों की मदद से विद्रोह किया। उन्हें अंत में फांसी पर जरूर चढ़ा दिया गया मगर वे हारे नहीं, अमर हो गए।

इस राज्य के शहर ही नहीं दूसरे बड़े शहर भी आम बन चुके हैं और किसी की अपनी कोई विशिष्ट पहचान नहीं। पहले कोलकाता, मुंबई, चेन्नई की अपनी पहचान हुआ करती थी और अमृतसर, जयपुर, लखनऊ, काशी अपनी विशिष्टता के लिए जाने जाते थे। बाजार ने सब को एकसमान करने की ठानी है। बहरहाल, छत्तीसगढ़ आकर मुझे स्थानीय संस्कृति को नजदीक से देखने का उत्साह ठंडा करना पड़ा था। अब यह इतना आसान भी नहीं, और शायद सुरक्षित भी नहीं। यह अब बस्तर के अंदरूनी इलाकों में सिमट गई है। अब मैं यहां जींस/टी-शर्ट देखने और कढ़ाई-पनीर व बटर-चिकन तो खाने आया नहीं था। न ही अंग्रेजी के विस्तार की कहानी देखने व सुनने गया था। मुझे आलीशान इमारतों की ऊंची-ऊंची दीवारों में फंसाए गए कांच के विशाल टुकड़ों की चमक नहीं देखनी थी। वो तो पूरी दुनिया में देखकर थक गया। मुझे तो पारंपरिक घर देखने थे, जिसमें बैठकर वहां की बोली में, उनकी बातों का आनंद ले सकूं। उनके शादी-ब्याह, रीति-रिवाजों, संस्कारों को देख सकूं। उनके भोजन का स्वाद चख सकूं जो वह पिछले हजारों साल से खाते आ रहे हैं। स्कॉच व व्हिस्की पिला-पिलाकर अंग्रेजों ने सभी को अपने जैसा बनाकर, सांस्कृतिक गुलाम बना लिया, तभी तो मुझे स्थानीय महुए व सल्फी के स्वाद को चखने की ललक थी। मैं उनके बच्चों के साथ खेलना चाहता था। और यह देखना चाहता था कि वे बचपन में कौन-सा खेल खेलते हैं। मगर यह संभव न हो सका। शायद मां दन्तेश्वरी की कृपा नहीं हो पायी। या कह सकते हैं अंगा देव मुझ पर प्रसन्न नहीं थे। मां और देव यहां के सर्वाधिक पूज्य ईष्ट हैं। मुझे शासकीय संस्थाओं के द्वारा पोषित व प्रचारित कला-संस्कृति से सजी हुई दुकानें नहीं देखनी थी। मुझे तो अपने उन आम भाइयों को देखना था जो इन जंगलों में निवास करते हैं। और अपनी सभ्यता को बचाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। और हम शहरी से बहुत बेहतर हैं जो अपना व्यवहार एक फिल्म देखकर बदल लेते हैं।

देखा तो बहुत कुछ। और उसी से अंदाज लगाया। राझिम, छत्तीसगढ़ का प्रयाग है। महानदी और पैरी नदी का संगम। पानी न होने से प्राकृतिक सौंदर्य तो नहीं देख पाया मगर लोगों की आस्था देखी। प्राचीन मंदिरों के शिलालेख ओर वास्तुकला देखी। आज की परिभाषा में, तथाकथित पिछड़े हिस्से में भी, हजारों वर्ष से एक सभ्यता कैसे जिंदा है? उसके अवशेष बिखरे देखे। कौन कहता है कि हिन्दुस्तान की सभ्यता और संस्कृति में समरसता नहीं है। यहां के चम्पारण में सैकड़ों गुजराती प्रवासी मिल जाएंगे। यह पूजनीय संत वल्लभचार्य का जन्मस्थान है। एक धार्मिक स्थल जहां आस्थाएं निवास करती हैं। यहां तर्क नहीं चलते। देखने को तो बहुत कुछ था। आदिवासी कुशल कारीगर और शिल्पकार हैं मगर बिल्डिंग के निर्माण कार्य में कार्यरत मजदूरों के बारे में जानने से पता चला कि स्थानीय समस्याएं यहां पर भी हैं। यहां भी मजदूर बाहर से आती है विशेषकर उड़ीसा से। और यहां का लेबर बाहर जाता है। यह मानवीय विस्थापन प्रक्रिया की अजीबोगरीब दास्तान है। बहरहाल, मैंने एक मजदूर के मासूम बच्चे को गोद में लिया, उसकी त्वचा का रंग काला और गंदा जरूर था मगर उसके स्पर्श से जिस रेशमी अहसास का अनुभव मुझे हुआ वो शहर के रेशमी कपड़ों में कृत्रिम दूध पर पल रही त्वचा से अधिक मासूम था। प्रकृति अपने ढंग से अपना काम करती है। शहर प्रवास के दौरान जिन विशिष्ट शख्सों ने मुझे प्रभावित किया, संयोग से दोनों ही वरिष्ठ पत्रकार हैं। श्री रमेश नैयर साहित्यकार भी हैं और वर्तमान में राज्य सरकार के एक साहित्य संस्था के अध्यक्ष, श्री श्याम वेताल प्रमुख दैनिक समाचार पत्र के संपादक। दोनों शांत प्रसन्नचित्त, ज्ञानी और सक्रिय। उनके अपनेपन से यह अहसास हुआ कि प्रमुख आदमी भी कितना सरल हो सकता है।

इस खूबसूरत और मौलिक सभ्यता के बीच आने का अगला कार्यक्रम न जाने कब बने? शायद तब तक नया रायपुर बस चुका होगा। मन में एक कल्पना है कि क्या उसकी पहचान विशिष्ट नहीं हो सकती? क्या कंक्रीट की दीवारें और तारकोल की सड़कों से बाहर नहीं सोचा जा सकता? ऐसी विद्युत व्यवस्था, जो कोयले की कई खदानों को खत्म करके और नदियों पर बांध बनाकर उन्हें सुखा देने से बनती हो, उस से अलग हटकर, सौर और पवन ऊर्जा पर निर्भर होना, क्या उचित न होगा? क्या हम ऐसे शहर की स्थापना नहीं कर सकते जो स्थानीय संस्कृति और सभ्यता के नजदीक हो और अनूठी हो। मिट्टी, रेत और घास से बने अधिकांश पैदल रास्ते हों और स्थानीय सभ्यता के अनुसार पत्थरों की दीवारें। चारों ओर घने पेड़ हों, पक्षी अनगिनत हों। व्यवस्थाएं कुछ इस तरह हों कि मोटर गाड़ियों की आवश्यकता कम पड़े और महत्वपूर्ण व्यक्तियों को गाड़ियों के काफिलों में सड़कों पर न आना पड़े। विधानसभा व सचिवालय केंद्र में हों और परिधि पर महत्वपूर्ण लोगों के आवास, जो फिर केंद्र से अंदर ही अंदर जुड़े हों। पैदल मार्ग से पहुंच संभव हो। बाजार यहां के स्थानीय पेय को ब्रांड बना सकती है। लोक कला को धरातल पर जिंदा रखा जाए। पिछले पचास वर्षों में एकमात्र चंडीगढ, अपनी अनोखी पहचान के साथ, उदाहरणार्थ हमारे सामने उपस्थित है। योजनाबद्ध मगर पश्चिमी रूप में, यहां भारत नहीं इंडिया निवास करता है। क्या हम किसी नये शहर की पूरी तरह से नये संदर्भ में परिकल्पना नहीं कर सकते? जो अपना-सा लगे। नये राज्य की नई राजधानी कुछ अलग हटकर होनी चाहिए।